1947 में गोरे अंग्रेज़ों से मुक्ति के बाद आज भारत का युवा काले अंग्रेज़ों से लड़ रहा है।यह लड़ाई है मानसिक ग़ुलामी से मुक्ति की जिसे काले अंग्रेज़ों ने बड़ी धूर्तता से 'असहिष्णुता' का नाम दिया है।
देसी दृष्टि और देसी लोगों की अस्मिता को उधार के विचारों के हमले से बचाने के इस महासमर में सबसे बड़ा सहयोगी है सोशल मीडिया जो मुक्तिकामी युवाओं का इंटरएक्टिव माध्यम है।
दूसरी तरफ काले अंग्रेज़ों के सहयोगी माध्यम के रूप में ताल ठोंककर खड़े हैं ख़बरिया टीवी और अख़बार जिनका युवाओं पर कारगर असर है ही नहीं।
105 करोड़ मोबाइल और 90 करोड़ युवाओं के देश में विमर्श की बागडोर को टीवी-अख़बार जैसे एकतरफा माध्यमों के हाथ से एक न एक दिन निकलना ही था।कल के बजाए आज क्यों नहीं?
अवार्ड वापसी गिरोह तो इस महासमर में काले अंग्रेज़ों की एक पलटन भर है।आगे वे इस लड़ाई को स्कूल-कॉलेजों तक ले जाएँगे और वहीं पर इन्हें शिकस्त मिलेगी क्योंकि आज की पीढ़ी सूचना से लैश है और ज्ञानपिपासु होने के साथ-साथ देश की मिट्टी से गहरे जुड़ी है।सेकुलर वायरस का मुकम्मल ईलाज उनके पास है।
देसी दृष्टि और देसी लोगों की अस्मिता को उधार के विचारों के हमले से बचाने के इस महासमर में सबसे बड़ा सहयोगी है सोशल मीडिया जो मुक्तिकामी युवाओं का इंटरएक्टिव माध्यम है।
दूसरी तरफ काले अंग्रेज़ों के सहयोगी माध्यम के रूप में ताल ठोंककर खड़े हैं ख़बरिया टीवी और अख़बार जिनका युवाओं पर कारगर असर है ही नहीं।
105 करोड़ मोबाइल और 90 करोड़ युवाओं के देश में विमर्श की बागडोर को टीवी-अख़बार जैसे एकतरफा माध्यमों के हाथ से एक न एक दिन निकलना ही था।कल के बजाए आज क्यों नहीं?
अवार्ड वापसी गिरोह तो इस महासमर में काले अंग्रेज़ों की एक पलटन भर है।आगे वे इस लड़ाई को स्कूल-कॉलेजों तक ले जाएँगे और वहीं पर इन्हें शिकस्त मिलेगी क्योंकि आज की पीढ़ी सूचना से लैश है और ज्ञानपिपासु होने के साथ-साथ देश की मिट्टी से गहरे जुड़ी है।सेकुलर वायरस का मुकम्मल ईलाज उनके पास है।
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