Sunday, December 31, 2017

वामपंथियों के सामने राष्ट्रवादी क्यों पिछड़ते हैं?

28.12.17

वामपंथियों के सामने राष्ट्रवादी क्यों पिछड़ते हैं?
पिछले 100 सालों से पूरी दुनिया की बौद्धिकता पर वामपंथ हावी रहा है जिसके मूल में सत्य-विरोधी नैरेटिव है जो नैतिकता के छद्मावरण में पेश होता है और एक की विफलता के लिए दूसरे की सफलता को जिम्मेदार बताकर पूरे समाज में काहिली को बढ़ावा देता है। इस तरह वह निजी उद्यम को नीची निगाह से देखता है और अंततः धनोपार्जक को उत्पीड़क तथा निर्धन को पीड़ित साबित कर ख़ुद को पीड़ित की आवाज़ घोषित कर देता है।
●मनोविज्ञान बनाम अर्थशास्त्र

इस लिहाज से वामपंथ का अर्थशास्त्र से कम मनोविज्ञान से ज़्यादा गहरा रिश्ता है।कौन नहीं चाहेगा कि उसकी असफलताओं के लिए किसी और को जिम्मेदार ठहरा दिया जाए?
राष्ट्रवादी इस वामपंथी छद्मावरण को डिकोड नहीं कर पाने के चलते वामी तर्कजाल में अक्सर उलझ जाते हैं। पूरे यूरोप-अमेरिका का यही हाल है। आज स्थिति यह है कि भारत समेत यूरोप-अमेरिका के ज्यादातर देशों में चुनावी जीत चाहे किसी भी पार्टी की हो, वैचारिक जीत वामियों की ही होती है।

●वामपंथ और इस्लाम

उपरोक्त संदर्भ में वामपंथ के बीज इस्लाम में छिपे दिख जाते हैं क्योंकि वहाँ भी मुसलमानों की सबसे बड़ी समस्या काफ़िर (ग़ैरमुसलमान) हैं और काफ़िरों को जेहाद के द्वारा मुसलमान बनाना या मिटा देना ही उनका सबसे पाक उद्देश्य है। इस प्रक्रिया में काफ़िरों की ज़र-जोरू-ज़मीन पर कब्ज़ा करना वैसे ही हलाल है जैसे वामपंथ में ख़ूनी क्रान्ति द्वारा धनी लोगों की लूट और उनका सफ़ाया वाजिब है।

लेकिन दोनों की पोलखोल उनके सत्ता में आने के बाद व्यवस्थाजनित विफलता से होती है। इस विफलता की जड़ में है मनुष्य की बेहतर संभावनाओं को कुचल कर उसे राज्याश्रित या किताबाश्रित बना दिया जाना जिसके बाद वह निजी उद्यम से ज्यादा लूट-खसोट को अपनी राह के रूप में चुनता है। सोवियत संघ का पतन, चीन का पूँजीवाद की राह पकड़ना और इस्लामी देशों के कलह इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।

●एक मानसिक बीमारी

अपनी विफलता के लिए दूसरे की सफलता को जिम्मेदार ठहराकर ख़ुद को पीड़ित-दमित घोषित करने को अगर आधार-दृष्टि मान लिया जाए तो साम्यवाद-इस्लाम-जातिवाद आदि एक मानसिक बीमारी के सिवा कुछ भी नहीं जिनका ईलाज असंभव सा है क्योंकि इस बीमारी का जो शिकार होता है उसे अपनी बीमारी के बने रहने में ही अपना हित नज़र आता है।
मतलब यह भी कि सोये हुये को तो जगाया जा सकता है, लेकिन सोने का नाटक करनेवाले को कैसे जगाया जाए? अगर लोकतंत्र में ऐसे सोने का नाटक करनेवाले बहुमत में आ गए तो वे इस नाटक को ही असली और असल जीवन के धर्म(कार्य-व्यापार, कर्त्तव्य) को नकली घोषित करने में सफल हो जाएँगे। ऐसा ख़तरा आज पूरी दुनिया पर मँडरा रहा है।

●कट्टरता के स्रोत:अज्ञान, धूर्तता, परमज्ञान

अक्सर लोग यह कहते सुने जाते हैं वामपंथी या इस्लामवादी अपने उद्देश्य के प्रति इतने कट्टर होते हैं कि उनपर विश्वास सा होने लगता है। यहाँ यह सहज सवाल उठता है कि इस कट्टरता का स्रोत क्या है? कट्टरता के मूल स्रोत तीन ही होते हैं:
अज्ञान, धूर्तता या फिर परमज्ञान।

वामपंथ और इस्लाम का परमज्ञान से नाता इसलिए नहीं हो सकता कि परमज्ञान सर्वग्राही और समावेशी होगा, वह 'माले मुफ़्त दिले बेरहम' के सिद्धान्त पर टिका नहीं हो सकता। इसके बाद नंबर आता है अज्ञान और धूर्तता का। वामपंथ और इस्लाम दोनों के शीर्षस्थ और दार्शनिक स्तर पर तो धूर्तता ही प्रमुख है क्योंकि यह मानना मुश्किल है कि मूल विचार के प्रतिपादकों को जीवन और समाज की असलियत नहीं पता होती। लेकिन निचले स्तर पर लोगों को ऐसे दृष्टिगत पेंचोखम से परिचय नहीं होता और वे सीधे-सीधे इसे अपने तात्कालिक स्वार्थ या हित से जोड़कर देखते हैं। मतलब कट्टरता की जड़ में है आम लोगों का अज्ञान और ख़ास लोगों की धूर्तता।

हाँ, यह बात जरूर है कि सोशल मीडिया और इंटरनेट के कारण अब इस वामी-इस्लामी छद्मावरण और नाटक की पोल खुलने लगी है।
©चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह

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