Sunday, November 9, 2014

कविता: सेकुलर, शहर और दंगे



कभी परीक्षा में पास
तो कभी नौकरी के डर से
फिसड्डी करार दिए जाने
तो कभी खुद के डर से
हे राम!
तुम्हारे राज में मैं
बिना हिम्मत हारे
सेकुलर बना रहा।

हमारे स्कूल में
गाँव में
खेत -खलिहानों में
मंदिर-मस्जिदों में
हाट-बाजारों में
कोई ऐसा नहीं था।

मेरी यादों
और सपनों में भी कोई ऐसा नहीं था।

सपनों में
बात बात पर
कहावत और गालियों की बारिश करते
आते हैं मेरे बाप ।

दोपहर की तेज धूप में
छप्पर से उतर
टोंटिया लोटे से
कुएँ पर वजू करते
याद आते हैं
महमूद मियाँ ।

नमाज के लिए
चौकी खाली करते
 फिर केले के पत्तल पर
सत्तू , प्याज, नमक, अचार परोसते
याद आते हैं बाबूजी ।

दोनों को
साथ साथ
सिर्फ़ खैनी खाते
गाँजा पीते
या आम खाते देखा है।

चूँकि मुर्गा मुसलमान
और बकरा हिंदू था
हमें चिकन करी और आमलेट
चोरी चोरी खिलाने वाले महमूद मियाँ
याद आते हैं।

शहर भागलपुर,
जहाँ वो जाते थे
गाहे बेगाहे
अपने दामाद से मिलने,
दंगाग्रस्त हो गया।

याद है
पूरे गाँव का इकट्ठा होना
किसी का किसी से
कुछ नहीं कहना
झपासो फुआ का बुदबुदाना
फिर जोर जोर  से चिल्लाना:
ई शहरवा
एक दिन सभनी के लील जाइ ।

सपनों में
शहर नहीं, सेकुलर नहीं
सिर्फ़ गाँव
गाँव के महमूद मियाँ
हिंदू बकरा मुसलमान मुर्गा
बाबूजी की गाली भरी कहावतें
और
झपासो फुआ का आर्तनाद ।

हे राम!
बाबूजी को, मुझे  हिंदू
महमूद मियाँ को मुसलमान
रहने दो।
बस
झपासो फुआ के मन से
शहर का डर भगा दो।

ये भी बता दो
कि शिक्षित सेकुलर लोग
और दंगे
शहर में ही क्यों होते हैं?
                                -- चन्द्रकान्त प्रसाद सिंह

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