बहराइच जहाँ एक हमलावर की क़ब्र को पीर की मज़ार की तरह पूजा जाता है!
शेख अब्दुल रहमान चिश्ती की पुस्तक मीर-उल-मसूदी के हवाले से एक पोस्ट पढ़ी जो यह कहती है कि 14 जून 1033 को महमूद ग़ज़नवी के रिश्तेदार सुल्तान सालार मसूद ग़ाज़ी की सेना का काम तमाम करीब डेढ़ दर्जन हिन्दुस्तानी राजाओं की सम्मिलित फौजों ने किया था और इसका नेतृत्व किया था शूद्र राजा सुहलदेव पासी ने।
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सेकुलर-वामपंथी इतिहासकारों की पुस्तकों से सुहलदेव पासी गायब हैं और पूरे भारत को इस्लाम की तलवार तले लाने के सपने देखनेवाले हमलावर सुल्तान सालार मसूद की क़ब्र को सूफ़ी संत 'ग़ाज़ी बाबा' की मज़ार के रूप में मान्यता प्राप्त है।यहाँ हर साल उर्स लगता है और लोग मन्नतें माँगने जाते हैं।
तुलसी दास को वहाँ की कहानी पता थी , इसीलिए व्यंग्य किया:
लही आँखी कब आँधरे बाँझ पूत कब पाई ।
कब कोढ़ी काया लही जग बहराइच जाई ।। (दोहावली)
यानी किस अँधे को आँखें मिलीं, किस बाँझ की गोद भरी और किस कोढ़ी की काया निरोग हुई जो लोग बहराइच की क़ब्र पर सर टेकने जाते है?
एक कवि इससे ज्यादा क्या लिख सकता था जो हुमायू-शेरशाह-अकबर के शासनकाल में रचना कर रहा था।
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लेकिन सेकुलर-वामपंथी इतिहासकार तो इतना भी करने से रहे।
उनकी कृपा से देशाभिमान करनेवाला कम्युनल और 'भारत तेरे टुकड़े होंगे' कहनेवाला सेकुलर।
भई, हम तो कम्युनल ही अच्छे जो कबीर और अब्दुल कलाम पर गर्व करते हैं, सिकंदर लोदी और औरंगजेब पर नहीं।
नोट: इसमें सुधार और टिप्पणियों के लिए आपकी कृपा रुकनी नहीं चाहिए! मैं कोई नेहरू वाले गाँधी वंश का थापर-हबीब-मुखिया-चन्द्रा-शर्मा टाइप प्रोफेशनल इतिहासकार तो हूँ नहीं।इस पोस्ट की गलतियों को सप्रमाण और तर्क के साथ ठीक करिये।
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