काॅ. पानसरे का निधन, भारतीय बुद्धिजीवी और आक्टोवियो पाज़
जानेमाने वामपंथी नेता पर 16 फरवरी को कोल्हापुर में हमला होना और 20 फरवरी को अंततः उनका मर जाना बहुत ही दुखद और चिंताजनक है।सत्ता किसी की हो, गरीब-गुरबों की आवाज बनने वाले कम ही लोग होते हैं और ऐसे लोगों के साथ खड़े होनेवाले तो बहुत ही कम ।
ऐसे ही करीब 30 साल पहले दिल्ली से सटे साहिबाबाद में एक नुक्कड़ नाटक के मंचन के दौरान का. सफदर हाशमी की ( सर को ईंटों से कूच-कूचकर) बड़ी बेरहमी से हत्या की गई थी क्योंकि कांग्रेस शासित दिल्ली में हुए सिख दंगों का उन्होंने सर्जनात्मक विरोध किया था जिससे दिल्ली के तत्कालीन कांग्रेस नेता खासकर एच के एल भगत काफी नाराज थे।
खैर, बाद में तरक्कीपसंद तबका दिल्ली के सिख विरोधी और भागलपुर के मुसलमान-विरोधी दंगों को सेकुलर मानने लग गया ( क्योंकि यह सब कांग्रेसी शासन के दौरान हुए थे) और गुजरात दंगों को कम्युनल । इस चक्कर में मृतकों का भी बँटवारा हो गया और राज्य सत्ता के आतंक के सामने एक सामान्य भारतीय फिर निरुपाय, बेबस और लाचार साबित हुआ । इस संबंध में आक्टेविओ पाज़ की बात कितनी सटीक और भविष्यवाणी जैसी लगती है ।
1960 के दशक में, जब वे भारत में मैक्सिको के राजदूत थे, उन्होंने
कहा था कि भारत के बुद्धिजीवी वर्ग जैसा नक्काल, दोहरे चरित्र का और जमीन से कटा हुआ दुनिया में कहीं का बुद्धिजीवी नहीं है।
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