Wednesday, April 29, 2015

'चंद्रगुप्त तो बहुत हैं पर उन्हें इंतज़ार है चाणक्यों का'...



13 वर्षों से शिक्षकाई करते हुए ऐसा लगने लगा है कि भारतीय समाज का अगर सबसे कुपढ़ और मुफ्तखोर तबका है तो शिक्षकों का ।
मुफ्त की किताबों पर गर्व करना, बिना पढ़े पढ़ाना, सीनियर होने पर न पढ़ाना न ही दूसरों को पढ़ाने देना, विद्यार्थियों के मौलिक सवालों को सुनते ही उन्हें परीक्षा का भय दिखाकर चुप करा देना...क्या - क्या कहें :
छात्र 'विपदा बरनी न जाई' ।
आज के विवि शिक्षकों को देख मेरे प्रिय स्कूली शिक्षक शाही जी की उक्ति याद आती है:
लिखने आता है? नहीं।
मिटाने आता है? दोनों हाथों से।
ये शिक्षक ही बौद्धिक काहिली और मुफ्तखोरी के स्रोत हैं जो सबकुछ जानते हैं जो नकल से प्राप्त किया जा सकता है पर मौलिकता के दुश्मन हैं।इसके जो अपवाद हैं उनकी खैर नहीं। आप भले ही हारवर्ड में जगह पा जाएं, पर यहाँ नहीं चलेगा। ऐसे में छात्र ही प्रेरणा की गंगोत्री बनकर उभरते हैंऔर स्वीकारना पड़ता है कि 'चंद्रगुप्त तो बहुत हैं पर उन्हें इंतज़ार है चाणक्यों का' (पिछले दिनों एक पूर्व छात्र  सुरेश कुमार ने यह बात कही)  I
ईच्छा होती है कि अपने सभी छात्रों से अपने शिक्षक समुदाय की तरफ से हर दिन माफी माँगूं और प्रार्थना करूँ:
हे ईश्वर, इन्हें सुबुद्धि देना...

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