Sunday, September 6, 2015

लोदी रोड का नाम संत कबीर मार्ग क्यों न किया जाए?

लोदी रोड का नाम बदलकर संत कबीर मार्ग क्यों न किया जाए? आप जरूर पूछेंगे: कबीर हिन्दू थे या मुसलमान?

Sumant Bhattacharya  ने
कबीरपंथी समाज की एक  माँग जाहिर की है।
उनका कहना है
कि चूँकि दिल्ली के सुल्तान
सिकंदर लोदी ने कठमुल्लों को खुश करने के लिए
महान संत कबीर
(जिनके पालक माता-पिता एक मुसलमान दंपति थे)
की हत्या के अनेक प्रयास किए,
इसलिए लोदी रोड का नाम बदलकर
संत कबीर मार्ग कर देना चाहिए ।

अब
जैसा कि हमेशा होता है,
सेकुलरदासी संप्रदाय के हिन्दू और मुसलमान
इसका विरोध कर रहे है।

ये लोग तब भी
देश की गंगा-जमुनी संस्कृति के नाम पर
छाती पीट रहे थे
जब
औरंगजेब रोड का नाम बदलकर
अब्दुल कलाम मार्ग रखा गया था।
औरंगजेब के पक्ष में
सबसे बड़ा तर्क यह दिया गया
कि अगर अपने 99 भाइयों की हत्या के बाद
अशोक महान हो सकता है
तो औरंगजेब क्यों नहीं?

अशोक और औरंगजेब में
अंतर ये है
कि अशोक ने कलिंग युद्ध में
जनसंहार देख
हिंसा से मुँह फेरा,
वे बौद्ध मत की शरण में गए,
किसी पर बौद्ध मत लादा नहीं,
न ही मंदिर तोड़े उन्होंने,
फिर वे
जनता के प्रिय राजा बने...
जबकि औरंगजेब
सिर्फ वहाबी कट्टर मुसलमानों का
आइकोन बना ...
क्योंकि उसने
(परदादा अकबर द्वारा हटाए जाने के बावजूद)
हिन्दुओं पर जज़िया लगाया,
मथुरा-काशी के मंदिर ध्वस्त करवाये
और
अकबरी विरासत के नुमाइंदा
अपने उदारचेता भाई
दारा की हत्या करवा
उसका शव
दिल्ली शहर में नुमाया किया।
क्यों?

क्योंकि
देश के उदार लोगों को
संदेश देना था:
'भइया, संभल जाओ, नहीं तो तेरा भी यही हस्र होगा'...

यही नहीं,
कश्मीरी पंडितों को
जबरन मुसलमान बनाए जाने का विरोध करने पर
दसवें गुरू को आरे से चीरकर मरवाया...

वहाबी इसे उचित इस्लामी कृत्य मानते हैं...
और सेकुलर लोगों को भी
इसमें कुछ बुरा नहीं लगता
क्योंकि
उनके लक्करदादा मार्क्स कह गए हैं
कि भारत का अतीत एकदम निकृष्ट है...
किस आधार पर?
पता नहीं।
इसको कहते हैं:
नाचे न जाने आँगन टेढ़...

हाँ,
ये बात सीना तानकर जरूर कहते हैं
कि बहुमत का कट्टर होना
अल्पमत की कट्टरता से ज्यादा खतरनाक है...

यानी बहुमत को अपमानित करने का
लाइसेंस दे दो अल्पमत को
और
वह उफ भी करे तो साम्प्रदायिक कहकर
उसका मुँह बंद करा दो...

पर सवाल उठता है कि बहुमत अगर कट्टरपंथी होता तो मुसलमान और ईसाई शान से रह रहे होते क्या?

दूसरा तर्क यह है है कि
अरे ये हिन्दू डरपोक हैं ,
इनको तो लोकतंत्र की वजह से इतनी ताकत मिल गई है...

और रही सही कसर संघियों ने पूरी कर दी है...
नहीं तो हजार साल की गुलामी ने तो इनको 'गाय' बना दिया था...

यानी इन्हें लोकतंत्र से चिढ़ है,
गुलामी से नहीं।
हिन्दुओं की उदारता से चिढ़ है,
इस्लामी या मजहबी कट्टरता से नहीं।
ऐसा क्यों?

ऐसा इसलिए कि ये अंदर से
देशतोड़क,
कूढमगज,
दिमागी तौर से गुलाम
और विरासत विरोधी हैं ।

और विरासत में ,
जैसा कि आचार्य द्विवेदी कहते थे,
'तीन चौथाई  से ज्यादा'
मुसलमानों के आगमन के पूर्व की
'चिन्ताधारा का सहज' विकास है ।

इसी विरासत के कारण
ईसाइयों से बचने के लिए यहूदी
और
मुसलमानों से  जान बचाकर पारसी भारत आये...

इसी विरासत के कारण
यहाँ ईसाई और मुसलमान
बराबर का हक  लेकर हमारे हमवतन हैं
जबकि देश का बँटवारा ही
इस आधार पर हुआ था
कि मुसलमान एक अलग राष्ट्र हैं
और
वे हिन्दुओं  के साथ नहीं रहकर
अपना एक अलग
इस्लामी राष्ट् पाकिस्तान बनाएँगे...

कितने मुसलमानों
और
सेकुलरों को आपने आईएसआईएस, बोकोहरम, अलक़ायदा आदि का  सड़क पर उतरकर विरोध करते पाया है?

अभी तो इंटरनेट और मोबाइल से
इनकी पोल खुल रही है
और
लोग इनकी आसमानी किताबों --
कुरानेपाक और कम्युनिस्ट मेनिफैस्टो--
को पढ़कर
उनकी असलियत समझ रहे हैं
और
सवाल पूछ रहे हैं...

तो डर
लोदी रोड के कबीर मार्ग होने का नहीं,
डर है
झूठ की दुकानदारी के बंद होने का ...
डर है
खलनायकों की जगह
असली नायकों के शोभायमान होने का ...
डर है
औरंगजेबों, सिकंदर लोदियों,
बख्तियार खिलजियों की जगह
जननायकों दारा शिकोहों, कबीरों
और
अब्दुल कलामों की वापसी  का...

ऐसा हुआ तो सदियों से इतिहास के गर्त में दबे
हजारों जननायक क़यामत से पहले ही
जिन्दा हो जाएँगे
और
मुट्ठी भर नकली नायकों पर
क़यामत बनकर टूट पड़ेंगे...
फिर
पूरे देश में प्रेरणा की लहर दौड़ पड़ेगी...

तब
जब भी प्रेम
और
उसकी निशानी की बात होगी
तो
शाहजहाँ के ताजमहल से ज्यादा जिक्र
गरीब मजदूर  पर दिल के शहंशाह
दशरथ माँझी के बनाये
उस रास्ते का होगा
जो उन्होंने 20 बरस में
अकेले दम पहाड़ का सीना चीरकर बनाया...

धीरज रखिये ,
डा अब्दुल कलाम आ गए है
दशरथ माँझी आ गए हैं
तो कबीर भी आयेंगे...
और,
ये लोग रसखान, रहीम, दारा,
नानक, गुरू तेग बहादुर, गुरू गोविंद सिंह,
शंकराचार्य, चाणक्य,
रविदास, वली दक्कनी, मीरा,  हब्बा खातून,
बोस, भगतसिंह, मौलाना आजाद, दादाभाई नौरोजी, अरविंद, विवेकानंद, लोकनायक जयप्रकाश, दीनदयाल,
भीमराव अंबेडकर...
सबको साथ लेकर आयेंगे...

सबको सम्मान मिलेगा...
पर देसी दृष्टि से,
घरतोड़ू अंग्रेज़ी चश्मे चश्मे से नहीं...

बस देखते जाइए,
आगे आगे होता है क्या !

आखिर
बकरे की माँग कबतक खैर मनायेगी ?

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