Saturday, September 19, 2015

उसने जो 'पाँव फैलाये तो दीवार में सर लगने लगा'...


चन्द्रशेखर प्रसाद यानी कामरेड चंद्रशेखर जो हम सबके चंदू रहे । बिहार के सीवान जिले के रहने वाले जो मंडल-कमंडल वाले नब्बे के दशक के पूर्वार्द्ध में
जनेवि छात्रसंघ के अध्यक्ष भी रहे थे और अस्सी के दशक के आरंभिक बरसों में एनडीए की अच्छी खासी नौकरी को  'लाल सलाम' कर पटना विश्वविद्यालय में दाखिला लिया था ताकि पढ़ाई और बदलाव की राजनीति साथ-साथ हो सके ।
लेकिन नब्बे के दशक के घोर सामाजिक बदलाव वाले दौर में आकाशधर्मी चंदू के लिए बिहार की ज़मीन कम पड़ने लगी थी कि उसने जो 'पाँव फैलाये तो दीवार में सर लगने लगा'।

सुंदर व्यक्तित्व, सदा मुस्कराती आँखें जिन्हें उसके पूरे वजूद का मुकम्मल साथ होता था, संकल्प से लबरेज आवाज, वामपंथी परिवर्तनकामी आदर्श को बिना किसी चौहद्दी के जीने वाला, जीवन से बेहद प्रेम करने वाला जिसे बिहार की टुच्ची सेकुलर राजनीति ने बेरहमी से निगल लिया...नहीं ऐसे लोग, प्रेमी लोग, कभी किसी का निवाला नहीं बनते, वे बस अपनी धुन के पक्के होते हैं; कोई शरीर का क़त्ल कर दे तो कर दे।
कितने लोग हैं आज जिन्हें उनके दोस्त गुजर जाने के लगभग दो दशक बाद भी याद करते हैं?
ऐसे लोग जीवनधारा के हामी होते हैं जो किसी भी विचारधारा को मुरझाने से बचाने की क्षमता रखते हैं; वे इंसान कमाते हैं , जीवन के साल और संगठनों के पद नहीं ।
भाई, बहुत याद आते हो...
हत्या के कुछ दिनों पहले मिले थे आई एन एस में...मेरा  एक  'बिदेसिया' पत्रकार  के नाते लालू राजा के बिहार के लंपट सेकुलरिज़म से 1991-95 के बीच पाला पड़ चुका था..सो जब चेताया तो तुमने चिरपरिचित अंदाज में कंधा उचकाते हुए मुस्करा दिया।
हमारे मित्र अजय भारद्वाज ने तुम पर डाॅकुमेंट्री बनाई तो उस बाबत हमें कुछ फुटेज खाने का मौका भी दिया तूने।

वैसे तेरे सामने वाले दाँत के टूटने पर मैंने जब थोड़ा शोध किया तो पता चला कि यह सब मुजफ्फरपुर में हुआ था, बिहार विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान और वह भी मैथिली-बज्जिका के संगम पर सहपाठी लड़के-लड़कियों के साथ होली खेलते जहाँ का एक
' होरी' गीत है:
भर फागुन बुढ़ऊ देवर लागे,
भर फागुन...

बरबस मुक्तिबोध याद आ रहे हैं और खुद की समीक्षा करने लग गया हूँ:

जीवन क्या जिया
लिया बहुत ज्यादा
दिया बहुत-बहुत कम...

कामरेड चन्दू,
मेरा पक्का विश्वास है कि यह लिखते वक्त कवि के जेहन में तेरे जैसे जवान सपनों के लिए ख़तरनाक ढंग से जीने और देनेवाले कुछ लोग जरूर रहे होंगे ।
वैसे तुम्हें क्या खाक मालूम होगा कि तुम्हें याद करना कोई हँसी-ठठ्ठा नहीं है।वह तो निवेदिता है तो जीवन-भक्ति में मगन रेगिस्तान से मथुरा-वृंदावन करती रहती है।
अच्छा अब ये सच-सच बता दे कि  उसकी कविताओं को तू गुनगुनाता है  कि नहीं? उस पर तुम्हें वैसे ही फक्र होता है कि नहीं जैसे  हमसब को तुम पर?

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