Friday, March 18, 2016

मजहब और आतंक के रिश्ते पर अंतिम मुहर कोई प्रधानमंत्री नहीं लगा सकता...

मजहब का आतंक से रिश्ता है कि नहीं यह प्रधानमंत्री
तय करेंगे कि तथ्य और शोध? वैसे प्रधानमंत्री के रूप में यह कहना औपचारिक है तो कोई बात नहीं।
मान लिया जाए कि मजहब का आतंक से संबंध नहीं है।अब दूसरा चरण है कि दुनियाभर के आतंकवादियों के आँकड़े देख लीजिए और उनके मजहब उनके सामने लिख दीजिए।
क्या कहते हैं आँकड़े?
एक और तरीका है।आतंकवादियों की किताबें हैं (कुराने पाक, हदीस, शरीया, कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो आदि)।
इन किताबों में उनलोगों के बारे में क्या कहा गया है जो इन किताबों पर आस्था नहीं रखते इससे तय होगा कि आतंक के विचार को खाद-पानी कहाँ से मिलता है।
काफ़िर, शिर्क़, ग़ज़वा-ए-हिन्दुस्तान, ज़न्नत, दोजख़, वर्गशत्रु, सर्वहारा, बुर्जुवाजी, सर्वहारा की तानाशाही, बंदूक की नली से सत्ता आदि अवधारणाओं के मानसरोवर में हंस रहते हैं या बाज़ और गिद्ध, इसके लिए तो गुगल गुरुजी काफी हैं।

धन्य हैं गुगल गुरुजी, जो ज्ञान-गोबिंद दियो बताए नहीं तो तथ्यों के 'नालंदा ' को 'खिलज़ी' के वंशजों के हवाले करने में न नेहरू वंश ने कोई कसर छोड़ी न ही दूसरे छोड़ेंगे।

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