Tuesday, December 6, 2016

बाबरी-ध्वंस: कलुषित राजसत्ता पर क्रुद्ध समाजसत्ता के प्रहार का उद्घोष

बाबरी-ध्वंस: कलुषित राजसत्ता पर क्रुद्ध समाजसत्ता के प्रहार का उद्घोष

6 दिसम्बर इस बात का प्रतीक है कि जब राजसत्ता अपने स्वार्थ के वशीभूत हो तथ्य और सत्य से खिलवाड़ करते हुये नियमों के बुर्के में समाजसत्ता और नैतिकसत्ता की लंबे समय तक अवहेलना करती है तो समाज अपने नियम खुद बना लेता है और सत्य की रक्षा करता है। बाबरी ध्वंस इसी का उदाहरण है।

आइये बौद्धिक कायरता और मानसिक गुलामी का परित्याग कर समाजसत्ता को वैसे ही नमन करें जैसे आज राजसत्ता के नोटबंदी के भीषण कठोर निर्णय को समाजसत्ता नमन कर रही है।

यह अप्रिय सत्यों के स्वीकार का दौर है। फर्जीवारों को जलसमाधि देने का दौर है। राजसत्ता पर समाजसत्ता के विजय-उद्घोष का दौर है। टीवी-अखबार पोषित मानसिक गुलामी और कायरता से मुक्ति का दौर है। ऐसा दौर किसी भी राष्ट्र के जीवन में बड़े भाग्य और घोर मुश्किलों के बाद आता है। आप-हम भाग्यशाली हैं कि इस दौर के साक्षी हैं, गवाह हैं, भागीदार हैं...

सिर्फ एक बात ध्यान रखने की है कि आज की समाजसत्ता इंटरनेट-मोबाइल-सोशल मीडिया पर सवार है और दोहरेपन को वह एकदम बर्दाश्त करने के मूड में नहीं है। इसलिए लोकतंत्र-प्रदत्त अधिकारों के हिज़ाब में धर्म(कर्त्तव्य) और राष्ट्रीयता की बलि चढ़ानेवालों को वह बुलडोज़र की तरह रौंद देगी, माफ कीजियेगा रौंद रही है।

रौंदे जाने की आशंका से बिलबिलाते लोगों का एक अड्डा है जेएनयू जहाँ हर उस आवाज़ का स्वागत होता रहा है जिसका मूल स्वर हो:
भारत तेरे टुकड़े होंगे
इंशाल्लाह इंशाल्लाह।
इसी जेएनयू में इस मुद्दे पर आज के पोस्टर (ऊपर से दूसरी) की एक बानगी पेश है:

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