Thursday, August 25, 2016

जेएनयू में देशप्रेमियों की तादाद क्यों बढ़ रही है?

जेएनयू वालों को लोग मकान किराये पर नहीं देना चाहते।ट्रेन में पिटाई भी करने लगे हैं।सेकुलर आत्मनिर्वासित प्रिंट-टीवी मीडिया के बावजूद देशप्रेमियों की तादाद क्यों बढ़ रही है?

टिप्पणियाँ:
■लालचन्द्र सिंह: मेरी समझ में इसका एक बहुत बड़ा कारण एक ख़ास विचारधारा के एजेंडा को सेट करते आ रहे लोगों के हाथों से सूचना-प्रवाह-विश्लेषण का निकल जाना है। इस नई पुनीत-पवित्र स्थिति के निर्माण में सोशल मीडिया जैसे प्लेटफ़ॉर्म का बहुत बड़ा योगदान है। अभी तक परंपरागत मीडिया में इन मामलों में अपवित्र कॉकस काम करता था और अगर कोई अलग रुख़ लेता भी था तो उस पर पूरा दबाव बनाकर उसकी लानत-मलानत कर दी जाती थी और उसे अलग-थलग भी कर दिया जाता था। वैसे तो डंडीमारों का यह खेल अभी भी चल ही रहा है लेकिन शुक्र है कि जनसमर्थन के भारी दबाव के चलते अब स्थिति बदल रही है और बेईमान बुद्धिजीवी डंडी मारने की हालत में नहीं रह गए हैं (नोट- बिहार में बेईमानी करके तराजू से कम तौल कर कम सामग्री देने को डंडी मारना कहते हैं।) हम पहले पढ़ते थे कि - साहित्य समाज का दर्पण है। फिर समझ में आया कि साहित्य के बजाए शायद जनसंचार को समाज का दर्पण कहना बेहतर होगा। लेकिन आज निर्विवाद रूप से सोशल मीडिया ही समाज का दर्पण है। सोशल मीडिया ज़िंदाबाद।

■ जनाब असग़र वजाहत जेएनयू पर लिखते हैं: जिसके हाथ में मीडिया है उसके हाथ में 'सत्य' है।
कुछ महीने  पुरानी बात है।हिंदी प्रदेश के दूर दराज़ इलाके में किसी बड़े संस्थान में काम करने वाले एक सज्जन से मुलाक़ात हुई।बात चल निकली JNU पर।उन्होंने विस्तार से JNU पर अनैनिकता, देशद्रोह, भ्रष्टाचार, सरकारी पैसा बर्बाद करने आदि के सभी आरोप लगा दिए।
मैंने उनसे पुछा- आप कभी JNU गए हैं ?
उन्होंने कहा - कभी नहीं गया। मैंने पूछा - क्या आपके बच्चे वहां पढ़े हैं ?
उन्होंने कहा - नहीं ।
फिर मैंने पूछा - क्या आपके संबंधी या दोस्त वहां काम करते हैं ?
उन्होंने कहा - नहीं ।
फिर मैंने पूछा - तब आपको जेएनयू के बारे में इतनी पक्की जानकारियां कैसे हैं ?
उन्होंने कहा - अखबारों में छपा है और लोग ऐसा ही बताते हैं।
■ मेरा जवाब:
पहले जेएनयू में भारत के टुकड़े करनेवाले इंशाल्लाह नदारद थे या थे तो उन्हें कोई जानता नहीं था। सारा खेल मोबाइल और इंटरनेट ने बिगाड़ दिया है। इस कारण देसी दृष्टि अब उधार की सेकुलरता को उसकी औकात बता रही है,' प्रगतिशील पोंगापंथियों ' की पोल खुल रही है।
■ वजाहत साहेब के अनुसार देशप्रेमियों की बढ़ती तादाद का कारण "भयानक प्रचार" है।
■ मेरा जवाब:
देशप्रेमियों की बढ़ती तादाद के दो कारण हैं--
1. नई टेक्नोलॉजी के कारण सूचना पर न के बराबर नियंत्रण।
2. जेएनयू  पोंगापंथियों का अड्डा है।

अंतर इतना ही है कि यहाँ की पोथियाँ अंग्रेज़ों और पूर्व सोवियत संघ तथा चीनियों के हितों के मद्देनज़र तैयार की जाती रही हैं। जैसे काबुल में भी गधे होते हैं वैसे जेएनयू में भी कुछ देसी सोच वाले दिख जाते हैं, लेकिन वे आम तौर  पर विज्ञान वाले होते हैं, समाजविज्ञान के नहीं।
नोट: आपको साहित्य का होने का लाभ है। आप वैचारिक रूप से आत्मनिर्वासित होने के बावजूद संवेदनात्मक धरातल पर ज़मीन से जुड़े हैं। यही हाल अन्य सेकुलर साहित्यकारों का भी है। लेकिन समजविज्ञान से जुड़े लोग तो लगभग पूरी तरह उखड़े हुए हैं, मानसिक ग़ुलामी और बौद्धिक कायरता की साक्षात प्रतिमूर्ति।
■ मित्र Ram Vinay Sharma ने वजाहत साहेब की वाल पर कमेंट किया है:
अब तो जेएनयू के पुराने विद्यार्थियों में से भी कुछ लोगों को यह संस्था देशविरोधी लगने लगी है. तब नहीं लगी जब इन्हें वहाँ पढाई करनी थी, वहाँ की सुविधाओं का लाभ उठाना था. तब आज से ज्यादा वामपंथी थे वहाँ. उनसे पढने में संकोच नहीं हुआ.
■ मेरा जवाब:
तब भारत के टुकड़े करनेवाले इंशाल्लाह नदारद थे या थे तो उन्हें कोई जानता नहीं था। सारा खेल मोबाइल और इंटरनेट ने बिगाड़ दिया है। इस कारण देसी दृष्टि अब उधार की सेकुलरता को उसकी औकात बता रही है,' प्रगतिशील पोंगापंथियों ' की पोल खुल रही है।
■ डॉ रामविनय शर्मा:
पोल तो सबकी खुल गयी है. वामपंथी, दक्षिणपंथी, समाजवादी और दूसरे जितने भी वादी-अपवादी हैं. यह किसी वामपंथी ने नहीं कहा है-'उघरहिं अंत न होहिं निबाहू, कालनेमि जिमि रावण राहू'. और भी-'जाके नख अरु जटा बिसाला, सो तापस प्रसिद्द कलिकाला.' भाई, हमें तो पाखंडियो की अपेक्षा उपर्युक्त पंक्तियों पर अधिक विश्वास है. इंटरनेट पर भरोसे की बात अगले अध्याय में करेंगे.
■ मेरा जवाब:
पाखण्ड तो हज़ार सालों से इस देश का राष्ट्रीय चरित्र बन गया है जिसका सर्वाधिक परिष्कृत आज के दौर के उदहारण हैं जेएनयू में समजविज्ञानों और कुछ हद तक साहित्य के पाठ्यक्रमों के सिलेबस जो निस्संदेह वामियों की करतूत है। पहले ज्ञान की परिभाषा तय कर लीजिये फिर उसे जेएनयू की उपलब्धियों पर लगा दीजिये:
कितने मौलिक विचारक?
कितने मौलिक सिद्धान्त?
कितने मौलिक शोध पत्र?
कितने जर्नल?
कितने समाधान मूलक एमफिल/पीएचडी?

बात रही तुलसीदास की तो उनकी अकेले खल वंदना पूरे देश के समजविज्ञानों के योगदान पर भारी है। क्यों? क्योंकि उन्होंने किसी मार्क्स-लेनिन-स्टालिन-माओ-चे-हो ची मिन्ह आदि की नक़ल में साहित्य नहीं रचे थे। हमारे वामपंथी परले दर्ज़े के नक्काल हैं और शिक्षा संस्थानों पर कब्ज़े के कारण 70 सालों से इसी विषबेल को बढ़ा रहे हैं। मैकाले की मानस संताने ये वामपंथी बौद्धिकता से दूर बौद्धिक हैं क्योंकि इन्हें बुद्धिविलास और बुद्धिपैशाच्य से लगाव है न कि बुद्धिवीरता से। बुद्धिवीरता की विशेषता यह है कि वह मौलिकता , हिम्मत और देशप्रेम की एकसाथ माँग करती है जबकि वामियों की सारी अकल नकल में ही खर्च हो गयी जिसका बड़ी हिम्मत और निर्लज्जता से वे देशप्रेम के रूप में नुमाया करते रहे हैं।
■ डॉ रामविनय शर्मा: बौद्धिकता का देशप्रेम से क्या सम्बन्ध ? ठीक वैसे ही राष्टवाद का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है? पता नहीं आप गुरुदेव रबिन्द्रनाथ को क्या कहेंगे? उनका एक उद्धरण आपके विचारर्थ प्रस्तुत है: 'निद्रित मनुष्यों में आपसी भेद नहीं होते. लेकिन जब वे जाग उठते हैं तब प्रत्येक की भिन्नता अलग-अलग तरह से अपने को घोषित करती है. विकास का अर्थ है ऐक्य के बीच पार्थक्य की वृद्धि. बीज में वैचित्र्य नहीं होता. कली में सारी पंखुड़ियाँ एक होकर रहती हैं; जब उनमें भेद निर्माण होता है तभी फूल विकसित होता है.' मेरा आग्रह है कि गाय पुराण को समझने के लिए एक बार 'कठोपनिषद' के पन्नों को अवश्य पलटें.
■ मेरा जवाब:
पाश्चात्य राष्ट्रवाद का रिलिजन से गहरा सम्बन्ध है, धर्म से नहीं। ठीक वैसे ही भारतीय राष्ट्रीयता का धर्म यानी कर्त्तव्य से सम्बन्ध है।
पश्चिम में बौद्धिकता का मतलब मनुष्य बनाम प्रकृति के जद्दोजहद में प्रकृति का दोहन है जबकि भारतीय बौद्धिकता आपको समावेशी बनाती है, धार्मिक बनाती है जिस कारण पश्चिम बौद्धिकता से आजिज़ एलियट अपनी कविता Wasteland का अन्त उपनिषद् के शांतिपाठ से करते हैं। इसको 'विद्या ददाति विनयम्' वाले श्लोक से जोड़कर भी देखा जाए तो बौद्धिकता और राष्ट्रीयता का भारतीय धार्मिक सन्दर्भ और स्पष्ट हो जाता है। सारा कंफ्यूजन रिलिजन और धर्म को एक मानने से पैदा होता हैं।
चूँकि अन्य शैक्षिक संस्थानों की तरह जेएनयू भी नक्कालों का अड्डा है इसलिये वहाँ रिलिजन का अनुवाद धर्म करके  भारतीय समावेशिता पर सेकुलरिज़्म को थोप दिया गया।उन्हें यह समझ ही नहीं आ सकता था कि यूरोपीय मानवतावाद, बौद्धिकता, राष्ट्रवाद और सेकुलरिज़्म ने दुनिया को उपनिवेशवाद और दो-दो विश्वयुद्ध दिए हैं ।






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