Friday, December 30, 2016

ले मंतर बनाम दे मंतर

भारत में काम करनेवाले के खिलाफ सब के सब हाथ धोकर पीछे पड़ते हैं, इसमें जाति-मजहब-विचारधारा बेमानी है। सेलेक्शन जिसका हो जाता है वह कौन सा काम में रुचि रखता है? और रुचि रखता है तो भी कौन उसे करने देता है? इसलिए काम की गुणवत्ता अप्रभावित रहती है, चाहे उसे ज़्यादा अंकवाला जनरल श्रेणी का व्यक्ति करे या फिर कम अंकों वाला रिज़र्व श्रेणी का। चर्चा के केंद्र में सिर्फ 'ले मंतर' है इसलिए झगड़ा है; चर्चा के केंद्र में 'दे मंतर' होता तो कोई झगड़ा नहीं होता। मामला अधिकार बनाम कर्तव्य का भी है।
29.12.16

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