नोटबंदी का हमला काले-धन पर कम और काले-मन वाले लोगों पर ज़्यादा है
नोटबंदी का हमला काले-धन पर कम और
काले-मन वाले लोगों पर ज़्यादा है
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नोटबंदी से कालाधन पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ेगा, यह सच है लेकिन काले मनवाले लोगों पर तो मानों तुषारापात हो गया है, यह साफ़ दीख रहा है।
जनता मोदी के साथ है और विपक्ष, मीडिया तथा ज़्यादातर बुद्धिजीवी मोदी के विरोध में। जनता लाख भड़काये जाने पर भी मोदी पड़ भड़क नहीं रही, उलटे उसका मोदी-राग बढ़ता जा रहा है। इससे भी साबित होता है कि नोटबंदी नामक आर्थिक हथियार से मोदी ने समाज-मनोवैज्ञानिक और राजनैतिक निशाना साधा है।
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लालू प्रसाद के वोटर एक खेतिहर-मजदूर पुकार पासवान (ग्राम: रूपनारायणपुर, बिहार) ने 10 नवंबर को नोटबंदी पर अपनी दोटूक राय दी:
मैं इसलिए ख़ुश हूँ कि बाबूलोग दुःखी हैं। इसमें जरूर हमारा कोई फ़ायदा होगा।
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23 नवंबर को आई पी यूनिवर्सिटी के चार सफाईकर्मियों का भी लगभग यही जवाब था:
पैसावाला लोग का औकात हाथ में आ गया है। यह काम 15 बरस पहले हो जाना चाहिये था।
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जागरण और इकॉनॉमिक टाइम्स के सर्वे से भी यह बात साफ़ हो गई है कि बहुजन (क्रमशः 85 % और 83 % ) नोटबंदी के पक्ष में है।
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सवाल उठता है कि बहुजन नोटबंदी के पक्ष में क्यों है? विपक्ष का वोटर आज मोदी के साथ चट्टान की तरह क्यों खड़ा है?
उत्तर है:
1. उसे मनोवैज्ञानिक सुख मिल रहा है कि उसकी मेहनत की कमाई को सम्मान मिल रहा है और उसको उसकी कम आर्थिक हैसियत के कारण हिकारत की निगाह से देखनेवाले उन छोटे नोटों के लिये तरस रहे हैं जो उनके (ग़रीबों) पास भी काम लायक़ हैं।
2. उनको इस बात की ख़ुशी है कि नोटबंदी ने छोटे-बड़े में भेद किये बग़ैर सबको एक ही लाईन में खड़ा कर दिया है यानी उनमें समानता का भाव बढ़ा है।
3. उनके जमा थोड़े पैसों का वजन उनके आसपास के बड़ों-बड़ों के बड़े पैसों के बरक्स थोड़ा ज़्यादा हो गया है।
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बहुजन अगर ख़ुश है तो ज़ाहिर है इसका राजनीतिक लाभ भी मोदी को होगा। मोदी का जनाधार बनिया-ऊँची जाति-मध्यवर्ग से निकलकर एक झटके में जनजन तक पहुँच गया है। जैसे-जैसे और जितना ज़्यादा मीडिया में इसका विरोध हो रहा है वैसे-वैसे और उतना ही ज़्यादा बहुजन की आस्था मोदी में (भाजपा या संघ नहीं) बढ़ती जा रही है। मोदी की रणनीति भी यही है कि उनका इसपर ख़ूब विरोध हो और उनके विरोधी जनता के सामने नंगे हों।
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जनाधार के पारम्परिक हदों पर निर्भरता कम होने के कारण संघ और भाजपा पर भी मोदी की निर्भरता कम हो गई है और मोदी आज सिर्फ इस देश के प्रधानमंत्री नहीं हैं बल्कि सत्ता में रहते हुये भी जन-जन के नायक हो गए हैं और विपक्षी दलों के पारम्परिक वोटरों के दिलों पर भी राज करने लग गए हैं। यहाँ तक ग़रीब मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा भी पहली बार मोदी के साथ खड़ा है।
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आज मोदी का कद भाजपा, संघ और प्रधानमंत्री की कुर्सी से भी बड़ा हो गया है। उनके ज़्यादातर चाहनेवालों का भाजपा या संघ से कोई नाता नहीं है और वे खुद को 'भक्त' कहने और कहलाने में गर्व का अनुभव करते हैं।
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भारत की 90 करोड़ आबादी 35 वर्ष से कम आयु की है। वह 75 करोड़ मोबाइल और 40 करोड़ इंटरनेट कनेक्शन पर सवार है। वह अख़बार-टीवी से ज़्यादा अपने दोस्तों, सोशल मीडिया और गूगल गुरुजी पर भरोसा करते हैं। वे अपने देश को अमेरिका-यूरोप-चीन से आगे देखना चाहते हैं। लेकिन इसके लिए जिस नायक की उन्हें तलाश थी वह अब जाकर पूरी हुई है।
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मोबाइल-इंटरनेट से लैश राष्ट्रीय नवजागरण की लहरों पर सवार युवा-वर्ग ने मोदी को अपना नायक क्योंकर मानना शुरू कर दिया?
इसकी जड़ में है मोदी की सामाजिक पूँजी।16 सालों से मुख्यमंत्री-प्रधानमंत्री के पद पर रहनेवाले मोदी के खाते में शायद दो करोड़ रुपये भी नहीं हैं, उनकी माँ अपने एक अन्य बेटे के साथ दो कमरे के मकान में रहती है, उनकी पत्नी अपने माँ-बाप के साथ रहती है और वे खुद लगभग 45 सालों से समाज के लिये संन्यासी का जीवन जी रहे हैं।
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नोटबंदी पर मोदी की सफलता को कैसे आँका जाए? इसके निम्न सूचक हैं:
1. विपक्ष का मोदी के ख़िलाफ़ और बहुजन का मोदी के फ़ैसले के पक्ष में एकजुट होना;
2. संघ और भाजपा नेतृत्व के एक बड़े तबके में मोदी के अचानक बढ़े कद को लेकर बेचैनी;
3. कश्मीर में जेहादियों द्वारा पत्थरबाज़ी का थम जाना;
4. माओवादियों द्वारा एक हज़ार करोड़ रुपये ज़मीन में गाड़े जाने का ख़ुलासा;
5. पैसे की कमी से जूझ रहे सरकारी बैंकों में लगभग 5.5 लाख करोड़ रुपये का जमा हो जाना;
6. चीन द्वारा नोटबंदी की यह कहकर आलोचना कि इसकी सफलता के लिये जो इच्छाशक्ति चाहिये वह भारत में नहीं है और दूसरी ओर पाकिस्तानी मीडिया द्वारा अकुंठ प्रशंसा; और
7. विरोधियों का कालाबाजारियों, आतंकवादियों और जेहादियों के साथ खड़े दिखने के कारण बहुजन के सामने नंगा हो जाना।
23.11.16
काले-मन वाले लोगों पर ज़्यादा है
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नोटबंदी से कालाधन पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ेगा, यह सच है लेकिन काले मनवाले लोगों पर तो मानों तुषारापात हो गया है, यह साफ़ दीख रहा है।
जनता मोदी के साथ है और विपक्ष, मीडिया तथा ज़्यादातर बुद्धिजीवी मोदी के विरोध में। जनता लाख भड़काये जाने पर भी मोदी पड़ भड़क नहीं रही, उलटे उसका मोदी-राग बढ़ता जा रहा है। इससे भी साबित होता है कि नोटबंदी नामक आर्थिक हथियार से मोदी ने समाज-मनोवैज्ञानिक और राजनैतिक निशाना साधा है।
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लालू प्रसाद के वोटर एक खेतिहर-मजदूर पुकार पासवान (ग्राम: रूपनारायणपुर, बिहार) ने 10 नवंबर को नोटबंदी पर अपनी दोटूक राय दी:
मैं इसलिए ख़ुश हूँ कि बाबूलोग दुःखी हैं। इसमें जरूर हमारा कोई फ़ायदा होगा।
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23 नवंबर को आई पी यूनिवर्सिटी के चार सफाईकर्मियों का भी लगभग यही जवाब था:
पैसावाला लोग का औकात हाथ में आ गया है। यह काम 15 बरस पहले हो जाना चाहिये था।
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जागरण और इकॉनॉमिक टाइम्स के सर्वे से भी यह बात साफ़ हो गई है कि बहुजन (क्रमशः 85 % और 83 % ) नोटबंदी के पक्ष में है।
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सवाल उठता है कि बहुजन नोटबंदी के पक्ष में क्यों है? विपक्ष का वोटर आज मोदी के साथ चट्टान की तरह क्यों खड़ा है?
उत्तर है:
1. उसे मनोवैज्ञानिक सुख मिल रहा है कि उसकी मेहनत की कमाई को सम्मान मिल रहा है और उसको उसकी कम आर्थिक हैसियत के कारण हिकारत की निगाह से देखनेवाले उन छोटे नोटों के लिये तरस रहे हैं जो उनके (ग़रीबों) पास भी काम लायक़ हैं।
2. उनको इस बात की ख़ुशी है कि नोटबंदी ने छोटे-बड़े में भेद किये बग़ैर सबको एक ही लाईन में खड़ा कर दिया है यानी उनमें समानता का भाव बढ़ा है।
3. उनके जमा थोड़े पैसों का वजन उनके आसपास के बड़ों-बड़ों के बड़े पैसों के बरक्स थोड़ा ज़्यादा हो गया है।
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बहुजन अगर ख़ुश है तो ज़ाहिर है इसका राजनीतिक लाभ भी मोदी को होगा। मोदी का जनाधार बनिया-ऊँची जाति-मध्यवर्ग से निकलकर एक झटके में जनजन तक पहुँच गया है। जैसे-जैसे और जितना ज़्यादा मीडिया में इसका विरोध हो रहा है वैसे-वैसे और उतना ही ज़्यादा बहुजन की आस्था मोदी में (भाजपा या संघ नहीं) बढ़ती जा रही है। मोदी की रणनीति भी यही है कि उनका इसपर ख़ूब विरोध हो और उनके विरोधी जनता के सामने नंगे हों।
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जनाधार के पारम्परिक हदों पर निर्भरता कम होने के कारण संघ और भाजपा पर भी मोदी की निर्भरता कम हो गई है और मोदी आज सिर्फ इस देश के प्रधानमंत्री नहीं हैं बल्कि सत्ता में रहते हुये भी जन-जन के नायक हो गए हैं और विपक्षी दलों के पारम्परिक वोटरों के दिलों पर भी राज करने लग गए हैं। यहाँ तक ग़रीब मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा भी पहली बार मोदी के साथ खड़ा है।
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आज मोदी का कद भाजपा, संघ और प्रधानमंत्री की कुर्सी से भी बड़ा हो गया है। उनके ज़्यादातर चाहनेवालों का भाजपा या संघ से कोई नाता नहीं है और वे खुद को 'भक्त' कहने और कहलाने में गर्व का अनुभव करते हैं।
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भारत की 90 करोड़ आबादी 35 वर्ष से कम आयु की है। वह 75 करोड़ मोबाइल और 40 करोड़ इंटरनेट कनेक्शन पर सवार है। वह अख़बार-टीवी से ज़्यादा अपने दोस्तों, सोशल मीडिया और गूगल गुरुजी पर भरोसा करते हैं। वे अपने देश को अमेरिका-यूरोप-चीन से आगे देखना चाहते हैं। लेकिन इसके लिए जिस नायक की उन्हें तलाश थी वह अब जाकर पूरी हुई है।
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मोबाइल-इंटरनेट से लैश राष्ट्रीय नवजागरण की लहरों पर सवार युवा-वर्ग ने मोदी को अपना नायक क्योंकर मानना शुरू कर दिया?
इसकी जड़ में है मोदी की सामाजिक पूँजी।16 सालों से मुख्यमंत्री-प्रधानमंत्री के पद पर रहनेवाले मोदी के खाते में शायद दो करोड़ रुपये भी नहीं हैं, उनकी माँ अपने एक अन्य बेटे के साथ दो कमरे के मकान में रहती है, उनकी पत्नी अपने माँ-बाप के साथ रहती है और वे खुद लगभग 45 सालों से समाज के लिये संन्यासी का जीवन जी रहे हैं।
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नोटबंदी पर मोदी की सफलता को कैसे आँका जाए? इसके निम्न सूचक हैं:
1. विपक्ष का मोदी के ख़िलाफ़ और बहुजन का मोदी के फ़ैसले के पक्ष में एकजुट होना;
2. संघ और भाजपा नेतृत्व के एक बड़े तबके में मोदी के अचानक बढ़े कद को लेकर बेचैनी;
3. कश्मीर में जेहादियों द्वारा पत्थरबाज़ी का थम जाना;
4. माओवादियों द्वारा एक हज़ार करोड़ रुपये ज़मीन में गाड़े जाने का ख़ुलासा;
5. पैसे की कमी से जूझ रहे सरकारी बैंकों में लगभग 5.5 लाख करोड़ रुपये का जमा हो जाना;
6. चीन द्वारा नोटबंदी की यह कहकर आलोचना कि इसकी सफलता के लिये जो इच्छाशक्ति चाहिये वह भारत में नहीं है और दूसरी ओर पाकिस्तानी मीडिया द्वारा अकुंठ प्रशंसा; और
7. विरोधियों का कालाबाजारियों, आतंकवादियों और जेहादियों के साथ खड़े दिखने के कारण बहुजन के सामने नंगा हो जाना।
23.11.16
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