Friday, December 30, 2016

इक़बाल पर सवाल

मेरे एक सेकुलर-वामी मुसलमान मित्र ने मेरे सामने एकदम से एक क्रांतिकारी सवाल रख दिया:

अगर रवीन्द्रनाथ टैगोर भारत (जनगण मन) और बांग्लादेश (आमार सोनार बांग्ला) के राष्ट्रगान लिख सकते थे तो महान अल्लामा इक़बाल भारत (सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्ताँ हमारा) और पाकिस्तान (सारे जहाँ से अच्छा पाकिस्तान हमारा... मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहाँ हमारा?) के राष्ट्रगीत के रचयिता क्यों नहीं हो सकते?
आपकी क्या राय है?

(नोट: नोबेल पुरस्कार नहीं मिलने से इक़बाल वैसे ही कुंठित हो गए थे जैसे काँग्रेस में गाँधी की लोकप्रियता के बाद जिन्ना।)
*
N e e l K a m a l
http://nation.com.pk/blogs/10-Oct-2015/until-we-start-denouncing-ilm-ud-din-s-legacy-mumtaz-qadris-will-keep-sprouting-up-in-pakistan
#shameonIqbal

A b h i s h e k C h a u h a n
सारे जहाँ से अच्छा की इन लाइन के वास्तविक मायने कोई बतायेगा मुझे

ऐ आब-ए-रूद-ए-गंगा! वो दिन है याद तुझको।
उतरा तेरे किनारे, जब कारवाँ हमारा।। सारे...
बिक्रम प्रताप:

इकबाल की लेखनी और उनके व्यक्तित्व को अलग-अलग भी देखा, महसूस किया जा सकता है। जरूरी नहीं सबको टोटैलिटी में ही तौला जाए। जो पहलू आलोचना के लायक है, उसकी जमकर आलोचना और जो पहलू सराहना के लिए लायक, उसकी जमकर सराहना। मेरी निजी राय।
CPS
बिल्कुल, जैसे औरंगज़ेब का नाम आते ही हमारे अंदर का उदार सेकुलरदास जग जाता है और राणा प्रताप-शिवाजी-गुरु गोविन्दसिंह-दयानंद-अरविंद-बंकिमचंद्र-विवेकानंद के नाम सुनते ही कैमटोज़ अवस्था में चला जाता है। जिन्ना को तो आडवाणी ही पाकिस्तान जाकर सेकुलरता का सर्टिफिकेट दे आये थे।
AsAhishnu pandya
हमारी आदर्शवादी बुद्धि जीविता हमें कहां ले जा रही है ?
लगता है इस आदर्शवाद का अंत हमारे खत्म होने के बाद ही होगा।
तभी तो हम आमिर खान के मंतव्य को भूला कर मात्र रचना धर्मिता के गुणगान करते रहते हैं।
N i k e s h P r a t a p D e v
अमार सोनार बंग्ला तो बांग्लादेश बनने से पहले लिखा गया था न?
C p S
1920 के दशक में लाहौर में आर्य समाज के प्रभाव से जले-भुने मुल्लों ने सरस्वती और दुर्गा को अश्लील अंदाज़ में पेश करना शुरू कर दिया था। इसके बाद आर्यसमाजी राजपाल मल्होत्रा (राजपाल संस के संस्थापक) ने एक पुस्तक प्रकाशित की जिसका नाम था "रंगीला रसूल"। इसका मुल्लों ने काफ़ी विरोध किया और महाशय राजपाल पर जानलेवा हमले शुरू हो गए। अंततः इलमुद्दीन नाम का एक लोहार युवक छूरा मारकर उनकी हत्या करने में सफल हो गया। एक साल के अंदर उसे फाँसी की सज़ा हो गई। उसी इलमुद्दीन की लाश के क़ब्र में रखे जाते वक़्त अल्लामा इक़बाल की आँखों में गर्व के आँसू छलछला आये:
हम देखते ही रह गए और यह एक बढ़ई का लड़का बाज़ी मार गया!
P u n d i r

पूरी जिंदगी को अंधेंरे में रखों और फिर उसे सूरज की रोशनी में लाओं तो उसकी आंखों को एकाएक कुछ नहीं दिखता लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि दोनों अँधेंरों में अंतर नहीं है। एक रोशनी से महरूम रखे गए हुए इंसान की जिंदगी का अंधेरा तो दूसरा अंधेरे में रखे गए इंसान को रोशनी से सामना करने में आंखों में घिर आया हुआ शुरूआती अंधेरा है। बात ये नहीं कि मोदी या किसी भाजपा के सरकार में आने से देश में बदलाव आता दिख रहा है। सर मैंने इस देश को जितना देखा है ( ज्यादातर हिस्से को रिपोर्टिंग के सिलसिले में घूमा है, कार से ज्यादातर हिस्से और लोगों के साथ बात चीत कर समझने के सहारे) उसमें आपस में एक दूसरे के साथ बातचीत शुरू होने या फिर यात्राओं के सहारे नजदीक आने की प्रक्रियाओं के सहारे ही बदलाव आना शुरू हो गया। मैं हमेशा आश्चर्यचकित रहा कि यदि लोककथाओं में देशाटन शिक्षा का एक अनिवार्य हिस्सा था तो फिर ये गायब कैसे हो गया। लोक का बोध कैसे गायब हो गया। एक होने का हिस्सा कहां चला गया। और विदेशी हमलावरों के विरोध में एक जुट प्रयास क्यों नहीं हो पाया। हो सकता है किसी ने इस पर काम किया हो मैं अभी देख नहीं पाया ( ये मेरी अल्पज्ञता है लेकिन मैं कोशिश कर रहा हूं) लेकिन इस्लाम के धर्मांध सुल्तानों के  स्थानीन जनता के रीति-रिवाजों को कुचलने या फिर उनके लिए मंहगें कर चुकाने की बाध्यता के चलते ये पंरपरा पूरी तरह से खत्म हो गई थी। फिर जो भी हमला हुआ उसका मुकाबला स्थानीय तौर पर किया गया। दूसरी और हमलावर दुनिया भर में एक तलवार के तौर पर एक पंरपराओं के तहत लड़ रहे थे। खौंफ और आतंक की वो दास्तां कितनी भयावह रही होगी जिसने एक पूरी सभ्यता को अपने ही खोल में सिकुड़ने के लिए मजबूर कर दिया। बाहरी हमलावरों के करीब जाने की बाध्यता ने इस प्रकिया में अपने अंगों से अलगाव को और तेज किया होगा।
इकबाल ने सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तां जब लिखा जब उन्हें लग रहा था कि अंग्रेजों की वापसी का मतलब है इस देश पर शरिया का शासन आना। लेकिन जैसे ही उनको लगा कि ये तो जनतंत्र की तरफ जा रहा है तो उन्होंने पाकिस्तान के लिए लिखना शुरू कर दिया। ये इतिहास को अंधा करने वालों की कवायद थी कि उसको इस देश में सम्मान दिया गया। क्योंकि जो उन साहब ने खुरासान के शाह के इशारे पर इस देश के लिए सम्मान दिया उसके लिए उनको किताबों में किस नाम से नवाजना चाहिए था ये सभी लोगों को मालूम होना था। पूरे इतिहास में लेखकों ने इस बात को स्थापित करने की कोशिश की -- बंटवारा हिंदु्ओं की ओर से भी मांगा ज रहा था। ये कौन सा बंटवारा था जो होने के बावजूद एक देश अपने को पाकिस्तान और इस्लाम के किले के तौर पर धर्म को राज्य का मुख्य अंग बना देता है दूसरी ओर अपने मुल्क का हिस्सा खोने के बावजूद बंटवारा मांगने वाले लोग अपने सीने पर पड़े हुए जख्मों को खाकर भी धर्म और राज्य का रिश्ता अलग-अलग रखते है। इतिहास में इसी अतंर को खत्म करने की कोशिश वामपंथी इतिहासकारों ने मुसलसल तौर पर की है। और यही कारण है कि इस देश की पीढ़ी समझ ही नहीं पाई कि इकबाल की सही जगह कहां है। मैं आज सुबह क्षमा शर्मा का एक लेख पढ़़ रहा था जिसमें बड़ी हैरानी जताईं गई कि इस देश में सौ साल से बिना नागा किए हुए उर्दू की एक मैंगजीन छप रही है। मैं इस लिए हैरान था कि उनको क्या लगता था कि ये मैंगजीन ईरान या अमेरिका या ब्रिटेन से छपनी चाहिए थी। अरे उर्दू यही पैदा हुई भाषा थी तो यही छपनी थी और कहां छपनी थी। पाकिस्तान और बांग्लादेश की उम्र अभी सौ साल हुई नहीं तो फिर कहां छपती लेकिन क्षमा जी क्षमा करे ये उनकी महानता है कि उन्होंने आश्चर्य किया।
29.12.16

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