Monday, August 3, 2015

भई, हम तो एकदम से नरभसिया जाते हैं...


विचारों की जैसी पहरेदारी आज है वैसी कब थी?
अगर आप सेकुलर नहीं तो बुद्धू या बुद्धिविरोधी...
ऐसी ठे केदारी सिर्फ स्टालिन, हिटलर, पोप या फिर तालिबान करते...

नामुराद मोबाइल और इंटेरनेट ने  सारा खेल ही चौपट  कर दिया...
नाश हो इन सब का...
कितनों के पेट पर  लात मारी...सोच-सोचकर दिमाग चकरा जाता है...

भई, हम तो एकदम से नरभसिया जाते हैं...
कोई सेकुलर दवा बताओ  कोई...
क्योंकि बीमारी देसी नहीं तो ईलाज कैसे देसी होगा?
 
कुछ समझदार लोग इसे मोदिआपा या मोदी से जोड़्कर देखते हैं...
मेरी मानें तो उसे मोबाइल और इंटरनेट से जोड़ें और 30 करोड़ मध्यवर्ग और उसमें 70-75 फीसदी युवा को भी स्थान दे दें तो उतना बेकार परिणाम नहीं आयेगा जितने का डर है...

वैसे मोदी और केजरीवाल दोनों ही मुझे इसी की उपज लगते हैं...एक ही सिक्के के दो पहलू की तरह...

बाकी का काम तो लाल -- बुझक्करों का है...
हम तो नक्कारखाने  में तूती की तरह ठहरे...यानी जंगल में मोर नाचा  किसने देखा?

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