Wednesday, September 30, 2015

कैंसर को कैंसर जो कहा तो बुरा मान गए...

बीमारी के दो पहलू होते हैं: निदान और ईलाज।
भारत का बुद्धिविलासी अभिजात वर्ग समाज की बीमारियों के बिना निदान के ईलाज करने-करवाने के शुतुरमुर्गी तरीके अपनाता रहा है ।
इस चक्कर में झोलाछापों की बन आई और समाज भी अप्रिय कहना-सुनना भूल गया।

इंटरनेट और मोबाइल के कारण आज यह देशसमुद्र मंथन के दौर से गुजर रहा है जिसमें विष और अमृत दोनों निकलेंगे और निकल रहे हैं।सिर्फ अमृत की कामना भी शुतुरमुर्गी है।
तो दोस्तों, तथ्यों, तर्कों और उनसे निकले सत्य से दो-चार होने की हिम्मत पैदा करिये, इससे हम सब अंततः मजबूत होकर निकलेंगे बशर्ते हमारी नीयत साफ हो।जिसके मन में जो हो बोल जाए, मन में रखकर उसे मवाद न बनाए।ऊपर-ऊपर से मन रखनेवाली चिकनी-चुपड़ी बातें न करे जो कि राजनीति का ट्रेडमार्क है।
मुझे यह सब कहने की नौबत ही नहीं आती अगर मुस्लिम अभिजात तबका मध्यवर्ग की भूमिका निभा रहा होता  या मुसलमानों ने कठमुल्लों के बजाए मध्यवर्ग को तवज्जो दी होतीं।
आज आरिफ मोहम्मद खान और शाहिद सिद्दीकी जैसे लोगों का मुसलमानों में क्या राजनीतिक वजूद है और क्यों?
क्यों दारा ,कलाम और एआर रहमान उनके आइकाॅन नहीं हैं? औरंगजेब , दाऊद, मेमन और ओवैशी उन पर भारी है?
भाइयों, कैंसर का ईलाज करना है तो पहले कैंसर को कैंसर के रूप में स्वीकारना जरूरी है और बिना इस डायगनोसिस यानी निदान के पक्का
ईलाज कैसे होगा?
आपको है मधुमेह और आप मिठाई खाना छोड़ना नहीं चाहते।ऊपर से करैले का जूस देनेवाले को आप अपना दुश्मन माने बैठे हैं?
जमाना बदल गया है, थोड़ा आप भी बदलिये फिर सबकुछ बदलने लगेगा ।
वादा है कि अगली पोस्ट एकदम से करैला होगी।
शब्बा ख़ैर ।

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