Saturday, September 26, 2015

चाहिए ऐसे आचार्य जो जीवन के विश्वविद्यालय से निकले हों

मित्रो,
सेकुलर-कम्युनल, दलित-शूद्र, धर्म-मजहब, पंथनिरपेक्षता-धर्मनिरपेक्षता-सर्वपंथसमभाव, अकबर-औरंगजेब-दारा शिकोह -कलाम-याकूब मेमन, हिन्दू-मुसलमान-ईसाई, मतांतरण-घरवापसी, ईसाई मिशनरी-दलित गिरोहबंदी आदि विषयों पर जो विरोधी और आलोचनात्मक  टिप्पणियाँ आ रही हैं, वे बड़े काम की हैं और विमर्श के अभिन्न हिस्से के रूप में उनपर विचार होना चाहिए।
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सेकुलर-कम्युनिस्ट-औपनिवेशिक इतिहास लेखन स्वार्थप्रेरित गिरोहों ने किया है और वैसे भी गिरोहबंदी की जरूरत चोर-उचक्कों-डकैतों-अपहर्ताओं को पड़ती है।सो इतिहासकार नामधारी गिरोहों ने भारतीय हितों की जड़ों में मट्ठा डाला।
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कुछ लोग निजी परिस्थितियों के शिकार होकर भी इन गिरोहों में शामिल हुए होंगे या उन्हें इस गिरोहबंदी का अहसास भी न हो लेकिन उन्होंने गिरोहों के उद्देश्यों को ही आगे बढ़ाया । ऐसे लोगों का अकादमिक शिरोच्छेदन करते वक्त निजी हमलों से बचना चाहिए।
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लेकिन सबसे जरूरी है कि गिरोहों का सामना संगठित होकर किया जाए, पूरे वैचारिक खुलेपन के साथ किया जाए; किसी प्रकार के बदले के भाव से न किया जाए।
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हम जिन लोगों से मुखातिब हैं वे आज भी निकृष्टतम गुलामी के शिकार हैं। इस गुलामी का नाम है मानसिक गुलामी, जिसका शिकार अपनी गुलामी से आनभिज्ञ होता है।
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इसलिए रोमिला थापरों या इरफान हबीबों को भी हमें व्यक्तिवाचक संज्ञा न मानकर जातिवाचक संज्ञा मानना चाहिए और इनके डँसे हुए लोगों से भी सम-वेदना रखनी चाहिए ।
ये सारे लोग शास्त्रीयता के शिकार हैं जो जीवनरूपी शरीर को किताबरूपी कपड़े के  'साइज' के हिसाब से काट-छाँट करते न कि शरीर के साइज के हिसाब से कपड़े को काटते।
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इस तरह समस्या  के किताबी समाधान के चक्कर में समस्या को और उलझाते हैं, सुलझाते नहीं ।
क्यों, वे कपड़ा यानी किताबी सभाधान के बजाए शरीर यानी जीवन की सहजतापर कैंची चलाते हैं।
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तो आज हमें जीवन के विश्वविद्यालय के आचार्यों की जरूरत है जो ईंट-गारे के विश्वविद्यालयों के आचार्यों को आईना दिखा सकें ।

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