Friday, October 30, 2015

बकरा-चोर ईदू मियाँ, मन-चोर ईदू मियाँ

मेरे गाँव में सिर्फ तीन घर मुसलमान
जिसमें एक से आते थे ईदू मियाँ
जो अव्वल बकरा-चोर थे
पर छठ व्रत रखते थे
जब सारा गाँव उनसे बहुत डरता था
कि कहीं वे हिया से सराप न दे दें।

छठ के अंतिम दिन की श्रद्धा-प्रतिष्ठा को
ईदू मियाँ बमुश्किल शाम तक ढो पाते
कि कहीं से माँस पकने की गंध आती
और बच्चे-बूढ़े सब चैन की साँस लेतेः
'अरे ईदू मियाँ मरले होई केउके बकरा
एक नंबर के पापी  हऽ ऊ
ओकरा नरकोऽ में जगह न मिली'।

ईदू मियाँ को बकरा चोरी के लिए
कभी कोई सजा पाते सुना नहीं गया,
पता नहीं क्या चक्कर चलाया था उन्होंने?

हमेशा गाँव में ही अड्डा जमाते
साल में एक बार ईदगाह जाते
और दसहरा मेला भी
तो दर्जन भर बच्चे साथ होते
मेले में हर बच्चे के हाथ में कुछ होता:
जलेबी, लेमनचूस, हवा मिठाई...

तब चोरी क्यों बुरी नहीं लगती थी?
चोर कहलाना एक स्टेटस सिंबल था
और चोरी मानों कोई साहसिक काम?

अनार-कुनरी-कटहल-आम-लीची
चुराते-चुराते हम कब प्राइमरी से मिडिल
मिडिल से हाई स्कूल पास कर गए
कुछ पता ही नहीं चला।

पर ईदू मियाँ जैसा उस्ताद-चोर
सबके नसीब में नहीं था
कहते हैं वे कड़ी परीक्षा लेते थे
जो उनका आशीर्वाद पाता था
वो पुलिस-फौज में नौकरी पाता था।

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