Monday, November 9, 2015

बिहार चुनाव-III: सेकुलर विष बनाम सांप्रदायिक रसायन

#जाति, #मजहब और #विकास तीनों का इस्तेमाल दोनों गठबंधनों ने किया और इसमें एक को ज्यादा लोगों ने पसंद किया जिसका समाजवैज्ञानिक_विश्लेषण होना चाहिए ताकि मीडिया की  #मैगी_फटाफट_व्याख्या से आगे कुछ सार्थक संकेत खोजे जा सकें।
अंकगणित तो उसी समय #भाजपा के खिलाफ चला गया जब '#विकास_कुमार_चंदन' ने '#जंगल_प्रसाद_भुजंग' से हाथ मिला लिया।#जातीय_गणित को भाजपा ने #सांप्रदायिक_रसायन से चेक करने की कोशिश की लेकिन इस रसायन के साथ समस्या यह है कि यह #मुसलमानों पर #एलोपैथिक दवा की तरह काम करता है और #हिन्दुओं पर #होमियोपैथिक की तरह । ऐसा इसलिए भी कि मुसलमान एक संप्रदाय की तरह #थोक_वोटिंग करते हैं जबकि #हिन्दू अनगिनत संप्रदायों के समुच्चय की तरह यानी #खुदरा_वोटिंग करते हैं।सो थोक- एलोपैथ बाजी मार ले गया।
इधर अक्ल के अजीर्ण के शिकार अनेक #बुद्धिजीवी इस चुनावी जीत को सेकुलरवाद की जीत बताने में लग गए हैं।सवाल है अगर इस #महागठबंधन की जीत को सेकुलरवाद की जीत कहा जाएगा तो #हत्या, #बलात्कार, #अपहरण और #फिरौती को #पुण्य के रूप में न सिर्फ स्वीकारा जाएगा बल्कि बढ़ावा दिया जाएगा।
#अस्मिता और #बिहारी बनाम #बाहरी के असर की औकात को भी परिमाणात्मक नजरिये से देखना चाहिए।
मतों के इस ध्रुवीकरण में #भाकपा (माले) को तीन सीटें मिली हैं जिसके दूरगामी मायने हो सकते है अगर यह जीत जाति से ज्यादा सामाजिक-आर्थिक बदलाव के एजेंडे पर मिली हो।यह इस अर्थ में भी महत्वपूर्ण है कि #बहुजन_समाज_पार्टी जैसी कोई पार्टी बिहार में नहीं है और अबतक इसकी भूमिका माले जैसी पार्टियों ने ही निभाई है।इस बार के चुनावों में
#पासवान_माँझी के हस्र ने तो यही साबित किया है।दूसरा यह भी सवाल है कि क्या नीतीश कुमार ने पिछले दस सालों में #काँसीराम_मायावती वाला सामाजिक-राजनीतिक एजेंडा लागू करने में सफलता तो नहीं पाई है?

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