Wednesday, December 16, 2015

जलाने के पहले एक बार मनुस्मृति पढ़ तो लेते!

आप में से कितने लोगों ने मनुस्मृति को पढ़ने का कष्ट उठाया है? अगर नहीं पढ़ा है तो उसे पढ़कर जलाना चाहिए क्योंकि समझ को आउटसोर्स करना, चाहे वह बाबा साहेब हों या गाँधी या मार्क्स या कोई पैगम्बर , मानसिक गुलामी का लक्षण है।

बाबा साहब पाकिस्तान बनने के खिलाफ थे लेकिन जब बँटवारा होना तय हो गया तो उनका दृढ़ विचार था कि पूरी की पूरी मुस्लिम आबादी पाकिस्तान और हिन्दू आबादी शेष हिन्दुस्तान में रहे।
क्या बाबा साहब को माननेवाले इसपर भी उतनी ही ईमानदारी से अमल के लिए आंदोलन करेंगे जितनी कि आरक्षण के लिए?

पिछले सैकड़ों सालों से भारत  बुद्धिवंचकों की खेमेबंदी का शिकार है।ये लोग खुद को सेकुलर-उदार-वाम आदि बैनरों से नवाजते रहे हैं और एक-दूसरे के लिए आक्सीजन बनते रहे हैं।
भारत को भारत की दृष्टि से देखनेवाले लोग बहुत ही कम हुए हैं और जो हुए उन्हें देवता बनाकर मंदिर में बिठा दिया गया या फिर 'बौद्धिक कालापानी ' की सजा दे दी गई।
क्या वजह है कि जो कम्युनिस्ट दूसरे देशों में राष्ट्रीय उभार के वाहक बने वे ही भारत में ब्रिटेन-सोवियत रूस -चीन के एजेंट या भोंपू से ऊपर नहीं उठ पाए? सबसे ज्यादा बड़ी 'बौद्धिक जमात' यहीं थी।ये काँग्रेस के लिए भी बौद्धिक-सप्लायर हो गए।
लेकिन आजादी के बाद सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी सीपीआई (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी) और बाकी वाम पार्टियाँ कहाँ पर हैं?
आज देश को बुद्धिवीरों की जरूरत है, जबकि गोदाम में बुद्धिविलासी, बुद्धिवंचक और बुद्धविरोधी ही भरे पड़े है।
क्या कारण है कि समाजविज्ञानों में मौलिक शोध न के बराबर होता है?
जो होता है वह बहुत ही मेहनत से अर्जित और सहेजी गई मानसिक गुलामी का नमूना है।
विश्वास न हो तो जेएनयू के पीएचडी शोधों पर एक नजर डाल लीजिए।
जेएनयू के अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान के एक शोधार्थी को अपनी पीएचडी की डिग्री दस सालों बाद अदालत के आदेश पर मिली क्योंकि उनके शोध-निष्कर्ष सोवियत संघ पर सीपीआई की पार्टी लाईन के खिलाफ जाती थी और उनके गाइड सीपीआई के कार्डधारी सदस्य थे।
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