Thursday, December 17, 2015

आ बैल मुझे मार क्योंकि मुझ बैल ने तुझे पहले ही मार दियो है!

मित्रो,
नमस्कार।आगे का हवाल यह है कि एक बहुत ही घनचक्कर मामले में अपने को फँसा हुआ पाकर आपको यह पाती लिख रहा हूँ ।
आप जानते ही हैं कि मेरी मित्र मंडली में अच्छी-खासी संख्या सेकुलर-लिबरल-वामी-इस्लाम परस्त लोगों की है जिनका बौद्धिक सोफ्टवेयर अपस्केलिंग या सुधार-संशोधन से परे है।वे सनातनी न होते हुए भी देशकाल की सीमा से ऊपर हैं।

ऐसे लोगों के लिए मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ क्योंकि मित्र होने के नाते वे मेरे लिए Necessary Evil हैं और उनके बिना मेरे जीवन का कारोबार नहीं चल सकता ।

फिर भी  जिन लोगों को यह लगता हो कि मेरे उनके मित्र रहते उनके पैगंबरों की बताई और जी हुई राहों पर अमल करना उनके लिए मुश्किल हो रहा है तो वे मुझे अवश्य अमित्र (Unfriend) कर दें।ऐसे लोगों की दुविधा के मद्देनजर तुलसीदास ने लिखा है:

तजिये ताहि कोटि वैरी सम जदपि परम सनेही ।

तो मुझे वैचारिक-तलाक देने में ऐसे मित्र तनिक संकोच का अनुभव न करें।वैसे सच तो यह है कि मुझसे भी उनका दुख देखा नहीं जाता जबकि मैं 'दुख के सौन्दर्य का उपासक' सा हो गया हूँ।
लेकिन लिबरल-सेकुलर -वामी नहीं रह पाने के कारण आजकल मुझे सबसे ज्यादा परेशानी तुलसीदास से ही हो रही है जो मित्रता निभाने के बड़े कड़े मानक रख कर खुद खिसक लेते हैं:

जे न मित्र दुख होहिं दुखारी, उनही बिलोकत पातक भारी ।
निज दुख गिरि सम रज करि जाना,मित्र के दुख रज मेरू समाना।

लब्बोलुआब ये है कि मैं भी आपकी दुविधा और परेशानी से घोर पीड़ा झेल रहा हूँ।इसलिए आपसे अमित्र किये जाने पर मैं खुद को अपराध-बोध से मुक्त मानूँगा और यह मैनेजमेंट की भाषा में Win- Win Situation होगा।
तो 'आ बैल मुझे मार क्योंकि मुझ बैल ने तुझे पहले ही मार दियो है'!
शीघ्रातिशीघ्र अमित्र किये जाने की आशा लिए,
आपका,
भूतपूर्व सेकुलर-लिबरल-वामी मित्र,
चन्द्रकान्त ।
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