अपने देश पर शर्म करने वाले जनहित में लगे हैं या स्वहित में?
जैसे अपने परिवार का कोई +2 की परीक्षा में झक्कास अंक लाता है...
जैसे अपने जात, गाँव, स्कूल, काॅलेज, हाॅस्टल, यूनीवर्सिटी, शहर या राज्य का कोई सफलता की बुलंदियाँ तय करता है...
जैसे कोई अपना चाँद पर कुछ दिन बिताकर
आता है तो बड़ा गर्व होता है...
सिना तन जाता है, मस्तक ऊँचा हो जाता है,
उस दिन भूख ज्यादा लगती है, सबकुछ अच्छा लगने लगता है...
वैसे ही देश के अतीत या वर्तमान की उपलब्धियों पर कुछ लोगों को गर्व क्यों नहीं होता?
वे ऐसे मौकों पर विघ्नसंतोषी क्यों बन जाते हैं?
उन्हें क्यों अक्ल का अजीर्ण जैसा हो जाता है?
वे क्यों विदेशी राग आलापने लग जाते हैं?
एक लाइन ढंग की अंग्रेज़ी नहीं लिखनेवाले को अंग्रेज़ी देवी में ही मुक्ति की संभावना दिखने लगती है...
मैकाले उन्हें क्रांतिदूत नजर आने लगते हैं?
बलात्कार-नरसंहारी हमलावर उन्हें आजादी के प्रतीक लगने लगते हैं, क्यों?
हर भारतीय चीजें इन सरस्वती-संतानों को
फालतू लगने लगती हैं...तबतक जबतक कोई गोरी चमरीवाला या गोरे कनेक्शन का कोई उस चीज को अच्छी न बता दे...
ऐसा क्यों होता है ऐसा करनेवाले ज्यादातर लोगों का किसी -न-किसी ऐसी संस्था या एनजीओ से टाँका भिड़ा होता है जिसे विदेशी सहायता उदारता पूर्वक मिलती रही है?
क्या ऐसा मान लेना ठीक रहेगा कि अरब और पश्चिमी देशों का भारत से इतना लगाव हो गया है कि वे सरकारी चैनलों को बाइपास करते हुए यहाँ के बुद्धिजीवियों के मार्फत सीधे-सीधे जनहित के काम कराना चाहते है?
जो ज्यादा समझदार हैं उनके बारे तो गारंटी के साथ कुछ नहीं कह सकते लेकिन सिर्फ काॅमन सेंस रखने वाले को कन्फ्यूजन होता है कि अपने देश पर शर्म करने वाले जनहित में लगे हैं या स्वहित में...
0 Comments:
Post a Comment
Subscribe to Post Comments [Atom]
<< Home