Friday, July 15, 2016

मुस्लिम मानस को डिकोड कैसे करें?

मुस्लिम मानस को डिकोड करने की क़वायद

पूरी दुनिया में इस्लामी आतंकवाद के जाल को देखकर लगता है कि पाकिस्तान का बनना ज़रूरी था।अगर पाकिस्तान, जिससे बाद में बांग्लादेश अलग बना, आज भारत का हिस्सा होता तो भारत का हाल इराक़ और सीरिया जैसा होता क्योंकि तब शान्तिदूत एक तिहाई होते।
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बाबा साहेब अम्बेडकर ने 1940 में लिखी पुस्तक 'थॉट्स ऑन पाकिस्तान' में साफ़-साफ़ कहा था कि अगर देश का बँटवारा होता है तो हिन्दू-मुस्लिम आबादी की सम्पूर्ण अदला-बदली होनी चाहिये।उनका मानना था कि ऐसा नहीं हुआ तो भारत में धीरे-धीरे भविष्य का 'पाकिस्तान' पलता रहेगा क्योंकि एक औसत मुसलमान क़ुरआन से बंधा है न कि देश या राष्ट्र की सीमाओं से।उन्होंने तो यहाँ तक आशंका जतायी थी कि किसी पड़ोसी इस्लामी देश से लड़ाई में मुस्लिम बहुल फौज के हमलावर से मिलाने का ख़तरा भी होगा। अभी हाल में अमेरिकी मुस्लिम संस्थान CAIR के एक अश्वेत अधिकारी ने स्पष्ट कहा कि 'एक मुसलमान के रूप में मैं अमेरिकी क़ायदे-क़ानून से ऊपर हूँ'।
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नेहरू की नासमझी और गाँधी की अति उदारता के आगे बाबा साहेब की एक नहीं चली।अविभाजित भारत के एक-तिहाई मुसलमान-बहुल इलाक़ों से हिन्दू या तो किसी तरह जान बचाकर भागे या फिर मुसलमान बनने को मजबूर हुए।आज पाकिस्तान में हिन्दू आबादी 22 % से गिरकर 1 % रह गई है।
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इसका अपवाद था तो भारत में विलयित कश्मीर पर वह भी 1990 में निज़ामे मुस्तफ़ा के कौल पर  पाकिस्तान की राह पर चल निकला: वहाँ के तीन लाख से ज़्यादा अल्पसंख्यक हिंदुओं को नरसंहार, बलात्कार और जातिनाश झेलना पड़ा, वे अपने ही देश में निर्वासित जीवन जीने को मजबूर हो गए। लेकिन तब भी हिंदुओं की आँखें नहीं खुलीं, क्यों?
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हिन्दू इस आत्मघाती आस्था के शिकार हैं कि सारे मजहब एक जैसे हैं और यह कि सभी ईश्वर प्राप्ति के अलग-अलग रास्ते हैं।गाँधीजी के प्रिय भजन (ईश्वर-अल्ला तेरो नाम) की मूल भावना भी यही थी।लेकिन यह बात तभी तक सच है जबतक गैर-हिंदुओं की भी इस बात में आस्था हो।यानी अगर इस्लाम के लिये सारे हिन्दू काफ़िर हैं और इन काफ़िरों को अल्लाह के अंतिम पैग़म्बर की अंतिम किताब क़ुरआन के अनुसार या तो इस्लाम कबूल करना होगा या फिर मरने के लिये तैयार, तब तो हिंदुओं का 'सर्वपंथ समभाव' फ़ालतू हो गया न!
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आज जब कश्मीर में आतंकी संगठन हिज़्बुल का कमांडर, जिसके सर पर दस लाख का ईनाम था, बुरहान वानी मारा गया और उसकी मैयत में आये हज़ारों लोगों ने 'पाकिस्तान ज़िंदाबाद' और 'आईएस ज़िंदाबाद' के नारे लगाये तो पूरे हिंदुस्तान के हिंदुओं को झटका लगा।कभी वे पाकिस्तान को कोस रहे तो कभी भारत सरकार को। कभी इसका ठीकरा कांग्रेस पर फोड़ रहे तो कभी भाजपा पर।
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असल में दोष न कांग्रेस-भाजपा का है न ही पाकिस्तान का।इसके मूल में है 'पाकिस्तान बनाने' का मानस जो एक औसत मुसलमान की समाजी सोच का हिस्सा है।यह सोच उचित माहौल पाकर अपना फ़न फैलाती है।आकस्मिक नहीं है कि पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, केरल, बिहार, असम, गुजरात, महाराष्ट्र, तेलांगना आदि अनेक राज्यों के मुस्लिम-बहुल इलाक़ों में आज न जाने 'कितने पाकिस्तान' पल रहे हैं।
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इसी से जुड़ा सवाल है 'इस्लामी आतंकवाद' पर मुस्लिम बुद्धिजीवियों का रवैया तथा सिर्फ़ और सिर्फ़ कट्टर छवि वाले मुस्लिम नेताओं की अपने समाज में स्वीकृति।
आतंकवादी घटनाओं पर एक औसत पढ़े-लिखे का क्या रुख होता है?
# ज्यादातर तो वह चुप रहता है;
# या आलोचना करने के तुरंत बाद इसके लिये अमेरिका-इस्राइल-पश्चिमी देशों की नीतियों और पीड़ितों पर इसकी असली जिम्मेदारी थोप पतली गली से निकल लेता है;
# या फिर हिंसा की दूसरी घटनाओं (मसलन सड़क दुर्घटनाओं में ज़्यादा लोग मरते हैं) का हवाला देते हुए आतंकवादी हिंसा को काफ़ी कम महत्व का साबित करता है;
# या शिया मुसलमान हुआ तो यह साबित करने में लग जाता है कि आज का इस्लामी आतंकवाद मूलतः सुन्नियों द्वारा शियाओं के ख़िलाफ़ चलाया गया ख़ूनी अभियान है;
# या अंत में बेरोजगारी-अशिक्षा तथा संघी तालिबान की आड़ में इस्लामी आतंक को रेशनलाइज करने लग जाता है।
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आप देखेंगे की आतंकवाद की मूल वजह यानी इस्लाम का ग़ैर-इस्लाम घाती रवैये पर कोई भी बात नहीं करना चाहता, क़ुरआन-हदीस-शरीया के ऐसे अंशों को संशोधित करने की बात नहीं करता जिनको उद्धरित करके आईएस अपनी हिंसात्मक कार्रवाई को इस्लामिक करार देता है।ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि औसत पढ़ा-लिखा मुसलमान और अनपढ़ मुसलमान इस पर एकमत हैं कि एक दिन ऐसा आएगा जब पूरी दुनिया में सिर्फ इस्लाम होगा (दारुल इस्लाम) और जिसके लिए प्रयत्न करना हर मुसलमान का फ़र्ज़ है।
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इस्लामी आतंक का सबसे बड़ा और सबसे लंबे समय तक शिकार रहा देश है भारत।लेकिन संचार क्रांति के कारण अब पूरी दुनिया इसका शिकार हो रही है जिस वजह से भारत की पीड़ा से समानुभूति रखनेवाले अब दूसरे देशों में भी पैदा हो रहे हैं।तब भी यह ध्यान रखने की बात है कि इस्लामी आतंक से निपटने के लिए भारत को टिपिकल हिन्दू गलदश्रु मानसिकता और सेकुलर बकलोली से मुक्ति पानी होगी।इस दिशा में एक मात्र देश जो अपने अनुभव के कारण सच्चा मित्र साबित होगा वह है इस्राइल।
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ऐसा क्यों है कि भारत के मुसलमान बात-बात में इस्राइल के ख़िलाफ़ झंडा और डंडा उठा लेते हैं? अफ़ज़ल-याकूब-ओवैसी-ज़ाकिर-बुरहान का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष समर्थन करते हैं लेकिन आजतक इस्लामी आतंकवाद के ख़िलाफ़ सड़क पर नहीं उतरते? क्यों उनके नायक संत कबीर, बाबा बुल्लेशाह, हब्बा ख़ातून, रहीम, रसखान, दारा शिकोह, अजीमुल्ला ख़ान, ज़फ़र, मौलाना आज़ाद और अब्दुल कलाम के बजाय ग़ौरी, ग़ज़नी, लोदी, तुग़लक़, औरंगज़ेब , जिन्ना, अफ़ज़ल गुरु, याकूब मेमन, दाऊद इब्राहिम और बुरहान वानी हो जाते हैं?
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हिन्दू-बहुल भारत में 25 सालों से तीन मुसलमान बॉलीवुड के सुपरस्टार बने हुए हैं लेकिन कश्मीर घाटी से लाखों हिंदुओं के निर्वासन और हज़ारों की हत्याओं और बलात्कार पर एक भी फ़िल्म नहीं दिखी?

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