जैसा इंसान वैसा ही उसका भगवान
जैसा इंसान वैसा ही उसका भगवान
इंसानों ने ईश्वर को बनाया, न कि ईश्वर ने इंसान को।यह इससे साबित होता है कि हर दौर और देश में ईश्वर अलग-अलग है और इंसानों के विकास के चरण का प्रतिबिम्ब भी।
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इसे समझने के लिए करीब 1000 साल पहले दुनियाभर में मौजूद ईश्वर की परिकल्पनाओं का तुलनात्मक अध्ययन करिये।आपको लगेगा जो समाज जितना आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से विकसित था उसका ईश्वर भी उतना ही उदार और विराट था।इसके विपरीत जो समाज जितना बर्बर और हिंसक था उसका ईश्वर भी उतना ही बर्बर और हिंसक।
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अरब के लोग बर्बर और जाहिल थे तो उनका ईश्वर भी उन्हीं की विकासयात्रा के अगुआ रूप में चित्रित है।
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जैसे कोई मूर्ख अपनी बात को अंतिम मान बात-बात में टंटा करता है वैसे ही अरबों ने अपने ईश्वर को भी अंतिम बात, अंतिम किताब और अंतिम पैग़म्बर पर आश्रित बना डाला।और आज उसी ईश्वर के नाम पर सब एक दूसरे के ख़ून के प्यासे बने हुए हैं।अंतिम बात, अंतिम किताब और अंतिम पैग़म्बर किसी जाहिल समाज की ही ऊपज हो सकते हैं, गतिमान समाज के नहीं।
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विश्वास न हो तो क़ुरआन की वे 37 आयतें पढ़ लीजिये जिसमें काफ़िरों का ज़िक्र है और उनका समाज-मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करिये।
आज ग्लोबलाइजेशन का सबसे बड़ा नुकसान इस जाहिलियत के तेजी से पूरी दुनिया में फैलने का है।
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पूरी दुनिया के सबसे शांत वे देश हैं जहाँ इन अन्तिमवालों की आबादी 5% से कम है और सबसे अशांत वे जहाँ अन्तिमवाले 95% हैं।
इसे समझने के लिए निम्न किताबें देख सकते हैं:
1. A God Who Hates
@Wafa Sultan
2. Allah is Dead: Islam is Not A Religion @ Rebecca B
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