Monday, July 11, 2016

सोचने और सवाल करने की शक्ति का अपहरण?

क्या यह सही है की इस्लाम स्वतंत्र रूप से सोचने और सवाल पूछने की शक्ति का अपहरण कर लेता है और सेकुलर राजनीति सच बोलने की क्षमता का।जो अपवाद हैं वे सिर्फ नियम को सिद्ध करते हैं।
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इसका प्रमाण है आतंकवादी घटनाओं पर भारत और दुनिया भर के पढ़े-लिखे मुसलमानों की चुप्पी। संसद हमले के दोषी अफ़ज़ल गुरु को फाँसी का मामला हो या तलाकशुदा शाहबानो को शरीया में लिखे से ज्यादा पर जरूरी गुजारा भत्ता देने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश का, इस्लाम एकाएक ख़तरे में पड़ जाता है और फिर इसके ख़िलाफ़ भारत का मुसलमान सड़क पर उतरने में देर नहीं लगाता। लेकिन वही सच्चा मुसलमान आतंकवादी घटनाओं के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना उचित नहीं समझता।क्यों?
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असल में ये आतंकवादी घटनाएँ इस्लाम के मूल उद्देश्यों के मद्देनज़र एकदम सही हैं, इसीलिए समझदार मुसलमान चुप रहता है यह सोचकर कि चलो मैं नहीं तो कोई तो है जो जान की बाज़ी लगाकर दीनोईमान की राह पर चल रहा है, पूरी दुनिया को मजबूर कर रहा है कि वो अल्लाह पर मोसल्लम ईमान रखे या फिर अल्ला मियां का प्यारा बनने के लिये तैयार रहे।
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सेकुलर हिन्दू यह सबकुछ समझते हुए भी बौद्धिक कायरता का शिकार होने के कारण चुप रहता है।ऐसे में नेता बेचारा वोटबैंक के दबाव में चुप न रहे तो क्या करे!

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