गंगा-जमुनी तहजीब का मतलब है?
गंगा-जमुनी तहजीब का मतलब है वो तहजीब जो हज़ार सालों के नरसंहार, बलात्कार, जबरिया मतान्तरण आदि के साथ खुशी-खुशी जीवन बिताने के औज़ार के रूप में पैदा हुई है!
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अगर ऐसा नहीं है तो ईरान के पारसी किससे प्रताड़ित होकर 1300 साल पहले भारत में शरण माँगने आये थे?
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उससे भी पहले और बाद में किससे प्रताड़ित होकर यहूदियों ने भारत में शरण माँगी थी?
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गंगा-जमुनी संस्कृति का मतलब अगर समावेशिता होता तो यह हज़ारो सालों से भारत की पूंजी है और इसी कारण पूरी दुनिया के सताये लोगों को यहाँ सदियों से शरण और सम्मान मिलता रहा है।
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अगर इस्लाम से इसकी शुरुआत मानी जाए तो इसका अर्थ बौद्धिक कायरता, मानसिक ग़ुलामी और इस्लामी अत्याचार के महिमामंडन के सिवा और कुछ भी नहीं क्योंकि गंगा की शर्त पर यमुना से और यमुना की शर्त पर गंगा से मिलन को औपनिवेशिक संस्कृति कहेंगे, गंगा-जमुनी नहीं।
10 वीं से 18वीं सदी की शुरुआत तक तो मूलतः औपनिवेशिक संस्कृति ही थी।
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मुग़ल साम्राज्य के पतनशील दौर में बराबरी की संस्कृति की अल्पकालिक झलक ज़रूर मिलती है जिसके वाहक हैं मीर, नज़ीर अकबराबादी, ज़फ़र, ग़ालिब और अकबर इलाहाबादी। लेकिन उनपर इस क़दर भारी पड़ते हैं मौलाना हाली और उनके चेले कि 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्ताँ हमारा' लिखनेवाले डॉ इक़बाल गंगा-जमुनी संस्कृति का उपसंहार ख़ालिस इस्लामी अंदाज़ में कर डालते है:
हो जाये ग़र शाहे ख़ुरासान का ईशारा
सज्दा न करूँ हिन्द की नापाक ज़मीं पर।
इसके पहले के दौर में बंदानवाज़ गेशुदाराज़, कबीर, जायसी, रहीम और रसखान की रवायत को शेरशाह-अकबर को छोड़ तुग़लक़, ख़िलजी, लोदी और जहाँगीर से औरंगज़ेब तक ने तो दफ़न कर ही दिया था।
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अगर ऐसा नहीं है तो ईरान के पारसी किससे प्रताड़ित होकर 1300 साल पहले भारत में शरण माँगने आये थे?
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उससे भी पहले और बाद में किससे प्रताड़ित होकर यहूदियों ने भारत में शरण माँगी थी?
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गंगा-जमुनी संस्कृति का मतलब अगर समावेशिता होता तो यह हज़ारो सालों से भारत की पूंजी है और इसी कारण पूरी दुनिया के सताये लोगों को यहाँ सदियों से शरण और सम्मान मिलता रहा है।
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अगर इस्लाम से इसकी शुरुआत मानी जाए तो इसका अर्थ बौद्धिक कायरता, मानसिक ग़ुलामी और इस्लामी अत्याचार के महिमामंडन के सिवा और कुछ भी नहीं क्योंकि गंगा की शर्त पर यमुना से और यमुना की शर्त पर गंगा से मिलन को औपनिवेशिक संस्कृति कहेंगे, गंगा-जमुनी नहीं।
10 वीं से 18वीं सदी की शुरुआत तक तो मूलतः औपनिवेशिक संस्कृति ही थी।
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मुग़ल साम्राज्य के पतनशील दौर में बराबरी की संस्कृति की अल्पकालिक झलक ज़रूर मिलती है जिसके वाहक हैं मीर, नज़ीर अकबराबादी, ज़फ़र, ग़ालिब और अकबर इलाहाबादी। लेकिन उनपर इस क़दर भारी पड़ते हैं मौलाना हाली और उनके चेले कि 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्ताँ हमारा' लिखनेवाले डॉ इक़बाल गंगा-जमुनी संस्कृति का उपसंहार ख़ालिस इस्लामी अंदाज़ में कर डालते है:
हो जाये ग़र शाहे ख़ुरासान का ईशारा
सज्दा न करूँ हिन्द की नापाक ज़मीं पर।
इसके पहले के दौर में बंदानवाज़ गेशुदाराज़, कबीर, जायसी, रहीम और रसखान की रवायत को शेरशाह-अकबर को छोड़ तुग़लक़, ख़िलजी, लोदी और जहाँगीर से औरंगज़ेब तक ने तो दफ़न कर ही दिया था।
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