Thursday, December 22, 2016

हिन्दुस्तान-वासी मुसलमान का मन

हिन्दुस्तान-वासी मुसलमान का मन

ऐसा अक्सर कहा जाता है कि
बँटवारे  बावजूद मुसलमानों ने यहाँ रहने का फैसला किया, इसलिए उनपर किसी तरह का संदेह अनुचित
और विभाजनकारी है।
तार्किक रूप से यह एकदम सही है।
वस्तुगत स्थिति क्या थी?
* मजहब के आधार पर देश दो हिस्सों में बँटा था।भारी खून-खराबा हुआ।नरसंहार वहाँ ज्यादा हुए थे जहाँ मुसलमान ज्यादा थे क्योंकि जिन्ना ने उन्हें  'सीधी कार्रवाई' का फतवा दिया था।
* और, बिहार और उत्तर प्रदेश के खाते-पीते और शिक्षित मुसलमानों के बड़े तबके ने नवसृजित पवित्र भूमि यानी पाकिस्तान का रुख किया था।
* बचे कौन? मुट्ठी पर शिक्षित-समृद्ध और ज्यादातर वो जो कहीं अपरिचित दूर देश जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए।फिर भी पवित्र भूमि की कसक ज्यादातर के मन में तब भी थी और अब भी है।
* इसी कसक का पूरा लाभ उठाते हैं राजनेता उनका भयादोहन कर।
* बहरहाल, यह सब जानते हुए बहुमत ने  मुसलमानों को स्वीकारा ,  यह इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि मुसलमानों के एक बड़े तबके ने भारत में रहना स्वीकार किया क्योंकि इस स्वीकार में लाचारगी ज्यादा है और स्वेच्छा कम।

यह बात तीन बातों से ज्यादा साबित हुई।
* मुसलमानों ने अलग पहचान यानी पंथनिरपेक्ष राष्ट्र में अपनी पंथीय यानी इस्लामी पहचान को संविधान में मान्यता दिलवाई और समान नागरिक संहिता का विरोध किया।

* 1980 के दशक में जब शाहबानो केस में औरतों को संविधान की मूल भावना के तहत गुजारा भत्ता देने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया तो मुसलमान सड़क पर उतर आये और संसद से कोर्ट के आदेश के खिलाफ कानून पारित करवा लिया।यानी मुस्लिम महिलाओं को देश की बाकी महिलाओं के बराबर अधिकार देने का विरोध किया और संविधान के रास्ते समाज सुधार का एक मौका गँवाया।
* दूसरे, कश्मीर के बहुमत मुसलमानों ने आतंकवादियों को मूक समर्थन दिया हिन्दुओं को वहाँ से भगाने के जेहाद में।क्यों, पूरे देश में यही एक क्षेत्र है जहाँ उनको लगा कि देर-सबेर इस्लामी शासन लागू किया जा सकता है।

* इसके बावजूद किसी भी हिन्दू बहुल राज्य से मुसलमानों को हत्या, लूट और अपहरण की धमकी देकर कश्मीर की तर्ज पर नहीं भगाया गया है।

* तीसरी बात, यह सर्वज्ञात है कि दिल्ली सल्तनत से लेकर मुगलिया शासन के दौरान हजारों मंदिर राजाज्ञा से तोड़े गए लेकिन आजादी के लगभग सात दशक बाद भी हिन्दुओं के तीन तीर्थ स्थलों-काशी, मथुरा और अयोध्या-के मंदिर परिसरों में मंदिरों को तोड़कर बनाई मस्जिदें बरकरार हैं और मुसलमान नेतृत्व ने मामलों के हल को हर स्तर पर उलझाया है।
इन तीनों बातों के मद्देनजर कुछ और प्रवृत्तियों पर भी गौर करना जरूरी है।
* औसत शिक्षित मुसलमान के लिए खुसरो, रहीम, अकबर, दारा शिकोह,  अब्दुल कलाम और आरिफ मोहम्मद खान आदर्श नहीं हैं क्योंकि वे उदार और समावेशी हैं।
तो फिर कौन उनके आदर्श हैं?
*मथुरा-काशी के मंदिरों के ध्वंश को सुनिश्चित करनेवाला औरंगजेब--
जिसने दशवें सिख गुरू तेगबहादुर की आरे से चीरकर इसलिए हत्या करवा दी थी कि उन्होंने इस्लाम कबूलने से इनकार कर दिया था;
*दाऊद इब्राहीम --
जो 1993 के मुंबई बम धमाकों का मास्टर माइंड था और जो फिलवक्त पाकिस्तान में रह रहा है;
*ओवैशी और आज़म--
जिनका एकमात्र एजेंडा है मुसलमानों की बुनियादी अलग मजहबी  पहचान को बनाए रखने के लिए समाज सुधार और हमाहंगी की संभावनाओं को पंक्चर करना।
* ऐसा नहीं कि हिन्दुओं में आजम और ओवैशी नहीं हैं लेकिन वे मुख्यधारा के नेता नहीं हैं क्योंकि गैरमुसलमानों का मध्यवर्ग मुखर है जबकि मुसलमानों ने मध्यवर्ग को उभरने ही नहीं दिया है।
* इसकी प्रतिक्रिया में हिन्दुओं में  'मुसलमान' जरूर पैदा होना शुरू हो गए हैं जो सिर्फ नाम के हिन्दू लगते हैं लेकिन उनकी सोच मजहबी ज्यादा और सनातनी या धार्मिक कम लगती है । यानी उनमें सर्वपंथ समभाव से ज्यादा मजहबी विशिष्टता की जबरदस्ती  तलाश का भाव है क्योंकि उनके  समावेशी स्वभाव को एक कमजोरी के रूप में परोसा गया है और हिन्दू होने पर शर्म करना सिखाया गया है।
* इस कारण एक औसत पढ़ा-लिखा हिन्दू अपने को बौद्धिक दुनिया में मनोवैज्ञानिक रूप से अल्पसंख्यक जैसा महसूस करता था जो कि देश और समाज के लिए ख़तरनाक संकेत है ।
* आजतक इन बातों पर कभी भी बड़े स्तर पर विमर्श को बढ़ावा नहीं होने दिया गया, वजह थी वोटबैंक की राजनीति।
लेकिन आज संचार तकनीक ने सबको सबकुछ उपलब्ध करा दिया है और लोग सबकुछ समझ-बूझ कर सवाल पूछ रहे हैं जिनके जवाब सेकुलरबाज़ राजनीतिज्ञों के पास नहीं हैं ।

(22 सितम्बर 2015 को अपनी ही वाल पर मेरा कमेंट।)
22।9।16

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