Friday, December 30, 2016

दाढ़ी और टोपी का चलन

मेरे एक फेसबुक मित्र Sarveshwaram Krishnam ने अपनी वाल पर लिखा है:
"मुसलमानों में दाढ़ी रखने और टोपी लगाने का प्रचलन बहुत ही तेजी से बढ़ रहा है।"
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क्या यह पोस्ट किसी अव्यक्त चिंता के कारण है या महज एक ऑब्जरवेशन ?
कोई-न-कोई फैशन या ट्रेंड हमेशा रहता ही है फिर इसमें ख़ास क्या है?
यह दाढ़ी-टोपी पोस्ट कहीं दाएश (आईएसआईएस) के अबु अल बग़दादी ब्राण्ड पहनावे को लक्षित करके तो नहीं लिखी गई है?
लोग वहाबी इस्लाम के नंबर एक जेहादी अबु अल बग़दादी से प्रेरित होकर ही बड़ी दाढ़ी, लंबा कुर्ता,  जालीदार टोपी, छोटी मूछ और छोटा पायजामा अपना रहे हैं तो इसमें कौन सी अनहोनी घट गई?
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अगर बेटों के नाम गर्व से बिन क़ासिम, ग़ोरी, ग़ज़नी, तैमूर, औरंगज़ेब, अब्दाली और नादिरशाह रखे जा सकते हैं...
संसद हमले के दोषी अफ़ज़ल गुरु को शहीद घोषित कर भारत की सुप्रीम कोर्ट को क़ातिल ठहराया जा सकता है...
4.5 करोड़ चीनियों के नरसंहार के जिम्मेदार माओ और 2.5 करोड़ सोवियत संघियों के नरसंहार के जिम्मेदार स्टालिन को महानायक माना जा सकता है...
चीनी हमले का पूरब से आती लाल किरण कहकर स्वागत किया जा सकता है...
नरेंद्र मोदी को हटाने के लिये भारत के दो पूर्व काबिना मंत्री पाकिस्तान से मदद माँग सकते हैं...

तो वहाबियों के पहनावे अपनाना कौन सी बड़ी बात हो गई?
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यह सभ्यताओं का संघर्ष है और संघर्ष प्रतीकों से ही लड़े जाते हैं...
अब जिसे जो व्यक्ति और प्रतीक भायेगा वह उसी को अपने जीवन में उतारेगा न ?
आपको गाँधी, शिवाजी, राणा प्रताप, चाणक्य, शंकराचार्य, राम, परसुराम, ताण्डव करते शंकर, कृष्ण, शंबूक, चन्द्रगुप्त, कबीर, रसखान, गुरुगोविंद सिंह, गुरु तेगबहादुर, दारा शिकोह, समुद्रगुप्त, भगत सिंह, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, आज़ाद, तिलक, विवेकानंद, लाजपतराय, दयानंद, ओशो, लक्ष्मीबाई, बिरसा मुंडा, पटेल, असफाक़ुल्ला, हमीद और कलाम जैसों को अपने प्रतीक या नायक बनाने से किसी ने रोका हुआ है क्या?
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कहीं आप इस सभ्यतागत संघर्ष में दुश्मन से यह तो उम्मीद नहीं कर रहे कि वह आपके नायकों और प्रतीकों के परचम तले  लड़े? तब तो आप लड़ और जीत भी चुके जैसे पिछले हज़ार सालों से गंगा-जमुनी झण्डा फहराते आये हैं!
28.12.16

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