Wednesday, April 15, 2020

देवासुर संग्राम 2020: कोरोना वायरस और मुसलमान

एक व्यक्ति के रूप में कोई मुसलमान उतना ही निर्दोष या दोषी है जितना कि कोई ग़ैर-मुसलमान लेकिन मुस्लिम उम्मा के सदस्य के रूप में वह सिद्धान्त: स्वयं और सम्पूर्ण मानवता के लिए संभावित ख़तरा है क्योंकि उसकी मजहबी जिम्मेदारी है कि वह अपने शरीर और अर्थ को नुकसान पहुँचाकर भी काफ़िरों के ख़िलाफ़ जिहाद करे ताकि पूरी दुनिया में इस्लाम के तलवार की सत्ता स्थापित हो। इस जिहाद को किसी भी अन्य प्रकार के जिहाद से उच्चतर माना गया है (क़ुरान4:95)। मौलाना साद यही कर रहा है जिसमें उसे उम्मा का सैद्धांतिक समर्थन भी है।
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एक अन्य कारण भी है और वह है 1400 सालों से पेंडिंग क़यामत का मामला। कोरोना पर सवार जिहाद-वायरस की मदद से क़यामत के कुछ सालों में ही घटित हो जाने की ज़न्नती आशा भी बंध गई है जिस कारण पाकिस्तान में भी तबलीगी जमात के लोग कोरोना जिहाद कर रहे हैं।
निस्संदेह यह एक बीमार सोच है जिसे भारतीय सेकुलरदासों का समर्थन है। लेकिन रोग को रोग माने बिना उसका निदान और इलाज संभव है क्या?
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इस बीच चीनी कोरोना वायरस ने एक बड़ा काम कर दिया है और वह यह कि उसने उपरोक्त बीमार सोच की न सिर्फ पोल खोल दी है बल्कि उसकी क्रूर सच्चाई को घर-घर तक पहुँचा दिया है जिसे अब कोई भी गाँधी-प्रयास झुठला नहीं सकता। इस मुद्दे पर विपक्ष की गगनभेदी चुप्पी ने यह भी सिद्ध कर दिया है कि कोरोना वायरस का भले ही कोई मजहब न हो लेकिन कोरोना जिहादियों का तो निश्चित ही एक मजहब है, एक ऐसा मजहब जिसका बुनियादी सिद्धांत है:
हम ही हम बाक़ी सब खतम।
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इस्लाम के आधार पर भारत के विभाजन के बावजूद यहाँ के अधिसंख्य हिंदू इस्लाम के हिंदू-हंता सिद्धांत से अपरिचित ही रहे थे लेकिन कोरोना के साथ जिहादी युगलबंदी ने इस अपरिचय से पर्दा हटा दिया है जो गृहयुद्ध की तरफ़ बढ़ रहे भारत और पूरी दुनिया के लिए आग में घी का काम करेगा।
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चाहे-अनचाहे आज हम सृजनात्मक ध्वंस के उस दौर में प्रवेश कर चुके हैं जिसमें बर्बरता और मानवता आमने-सामने है। हम इस 'देवासुर संग्राम' में सहभागी और उसके साक्षी बनने के लिए अभिशप्त हैं।
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