ज्यादातर हिन्दुस्तानी विद्वान पश्चिमी विशेषज्ञों के विलंबित संस्करण ?
ज्यादातर हिन्दुस्तानी विद्वान अपने विषय के पश्चिमी विशेषज्ञों के विलंबित संस्करण क्यों लगते हैं ?
ऐसा शुरू से ही था क्या? कहीं इंटरनेट की वजह से तो अब इनकी पोल-पट्टी नहीं खुल रही?
या फिर पहले सोचने का काम गोरी चमरीवालों को आउटसोर्स कर रखा था और बदले समय में इन्हें यह काम खुद ही करना पड़ रहा है? चिंतन की आदत रही नहीं सो बेचारे करे तो क्या करें?
क्या सचमुच ये सब HMV (His/her Master's Voice) बनकर रह गए हैं?
ऐसा शुरू से ही था क्या? कहीं इंटरनेट की वजह से तो अब इनकी पोल-पट्टी नहीं खुल रही?
या फिर पहले सोचने का काम गोरी चमरीवालों को आउटसोर्स कर रखा था और बदले समय में इन्हें यह काम खुद ही करना पड़ रहा है? चिंतन की आदत रही नहीं सो बेचारे करे तो क्या करें?
क्या सचमुच ये सब HMV (His/her Master's Voice) बनकर रह गए हैं?
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