Saturday, September 12, 2015

ट्विंकल-ट्विंकल लिटल स्टार...


आजकल #गाँव_देहात में #पब्लिक_स्कूलों की भरमार है।
पब्लिक मतलब समझ गए न, #प्राइवेट।वैसे ही जैसे #ईमानदार का मतलब #चोर, #आस्तिक का मतलब #नास्तिक, #दिल्ली का मतलब #दौलताबाद या #कम्युनल का मतलब #सेकुलर!

खैर, इन सब पब्लिक स्कूलों का माध्यम #इंग्लिश ही है।वैसे इंग्लिश का संबंध यहाँ भाषा से नहीं, शुद्ध 'अर्थ' से है।इस नाम पर बच्चे मिल जाते हैं।यह अलग बात है कि इन स्कूलों के शिक्षक-शिक्षिकाओं की #अंग्रेज़ी #ट्विंकल_ट्विंकल_लिटल_स्टार के आसपास ही होती है और पड़ोसी सरकारी या असली पब्लिक स्कूलों के शिक्षकों का भाषाई स्तर, हिन्दी हो चाहे #इंग्लिश, इन प्राइवेट स्कूलों के टिप-टाॅप स्टाफ से कतई अच्छा होता है और वे अगर पढ़ाते हैं तो बेशक अच्छा पढ़ाते है।
लेकिन इन शिक्षक-शिक्षिकाओं का अधिकांश समय #जनगणना, #सर्वे, #मिडडे_मिल में जाया होता है।

#हिन्दी_पखवाड़े और #विश्व_हिन्दी_सम्मेलन के दौरान #कालेज और #विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी मोह पर बात न करें तो नाइंसाफी होगी।

नामचीन विश्वविद्यालयों ने तो घोषित कर रखा है कि वे तो अंग्रेज़ी में ही पढ़ेंगे और पढ़ाएँगे।इस पर बिलकुल समझौता नहीं।वैसे इनकी ज्यादातर बैठकों--अकादमिक परिषद्, कार्यकारी परिषद्, बीओएस, शोध समिति, कोर्ट, सीनेट आदि--में लोग हिन्दी या अपनी क्षेत्रीय भाषाओं में ही बात और फैसले करते हैं लेकिन उसकी रिकार्डिंग यानी लिखाई इंग्लिश में करते हैं। लेकिन यह बाद में काफी माथापच्ची के बाद तैयार होती है क्योंकि किसी को भी अपनी इंग्लिश-ज्ञान का स्तर और अकादमिक नीयत को उजागर होने देने का खतरा गवारा नहीं।

स्थिति यह है कि इससे बड़ी कोई गाली नहीं कि आपको यह कह दिया जाए:
अंग्रेज़ी में आपका हाथ जरा तंग है।

वैसे #हरियाणा और #उत्तर_प्रदेश के कुछ विश्वविद्यालयों का मेरा अनुभव बताता है कि वे थोड़े प्रैक्टिकल टाइप हैं।वे हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों माध्यमों में अंग्रेज़ी पढ़ाते हैं।

उनकी व्यावहारिकता का तो मैं तब फैन हो गया जब पता चला कि उनके यहाँ #पत्रकारिता की पढ़ाई को लेकर भी , सैद्धांतिक और व्यावहारिक भौतिकी यानी Theoretical और  Applied Physics के तर्ज पर, अकादमिक और प्रोफेशनल पत्रकारिता की पढ़ाई होती है।

लेकिन देश के सारे विश्वविद्यालय इतने व्यावहारिक नहीं हो पाए हैं और वे लोग अभी भी इंग्लिश के खूँटे से स्वेच्छा से बँधे हैं ।

इधर इस नाचीज़ ने अपने अल्प ज्ञान के आधार पर #समाज_विज्ञान /  #मानविकी की #भारतीयों द्वारा लिखित
कुछ चर्चित पुस्तकों पर नज़र डाली। मुश्किल से 10 %
ऐसी थीं जिन्हें कटपेस्ट के मुकम्मल उदाहरण के तौर पर न पेश किया जा सके और जो नहीं थी उनमें भी ज्यादातर की भाषा एकदम जलेबिया और अक्ल के अजीर्ण (constipated thinking and language) का पुख्ता प्रमाण देती हुई।

तब भी यह तो मानना पड़ेगा कि खालिस #विज्ञान के क्षेत्र में उधार की भाषा के बावजूद कुछ अच्छी प्रगति हुई है जो संभावना का शतांश भले ही न हो।

लेकिन समाज विज्ञान-मानविकी में अकाल क्यों?
वह इसलिए कि ये विषय संस्कृति और देश-काल सापेक्ष हैं।यहाँ नकल करके सिर्फ घुग्घीबाज़ यानी कटपेस्ट- निपुण दसखतिया विशेषज्ञ ही पैदा हो सकते हैं।

ऐसा नहीं होता तो अपनी भाषा में जीने-मरने वाले समाजवादी #चीन को ऐसा क्यों लगा कि गुलाम-भावना से मुक्ति के लिए #साँस्कृतिक_क्रांति चाहिए।साँस्कृतिक क्रांति मतलब हर चीज़ का देसीकरण ।
फिर 1970 के दशक में उसे यह लगा कि बाजार व्यवस्था के बिना अर्थतंत्र भड़भड़ाकर ढह जाएगा ।
1991 में चीन की प्रति व्यक्ति आय यानी भारत के आसपास थी और आज चारगुना से भी ज्यादा है ।

आज #अमेरिका में  लगभग 25 % विदेशी छात्र चीनी हैं और वे अपनी थीसिस अधिकतर #चीनी_भाषा में लिखते हैं जिसका चीन में बैठा व्यक्ति #अंग्रेज़ी_अनुवाद करता है फिर वो जमा होती है।इनमें से ज्यादातर चीनी #शोधकर्ता स्वदेश लौटते हैं।

इन्हीं चीनियों ने जब 1962 में भारत पर हमला किया तो अंग्रेज़ीदाँ क्रांतिकारियों ने उसका स्वागत करते हुए कहा:

पूरब से लाल किरण आ रही है।

इन्हीं क्रांतिकारियों ने बाद में #सीपीआई से अलग होकर अपनी अलग पार्टी बनाई जिसे #सीपीएम कहते हैं और जिसका #पश्चिम_बंगाल में  #आक्सफोर्ड रिटर्न #ज्योति_बसु के नेतृत्व में 25 साल तक राज रहा।आगे बंगाल का क्या हाल हुआ,आप सब जानते हैं।

तो अपनी भाषाओं में काम करके चीन और जापान आसमान छू रहे और हम अंग्रेज़ी मोह से अभी भी अभिभूत हैं!

एक मेरे प्रोफेसर मित्र हैं, धुर #वामपंथी और #प्रगतिशील। देश-दुनिया की गति-मति के हिसाब से दाढ़ी बढ़ाते-कटवाते हैं और बहुभाषी हैं।
एक दिन मैंने पूछाः भाई, ये #डेंगू बुखार भारत में कब से आया?
तपाक से बोले: डेंगू नहीं, #डेंगी ।
मैंने कहा: ठीक है, पर कब से आया?
वे बोलेः यार, इस फालतू के सवाल का मेरे पास जवाब नहीं।
ऐसा लगा कि हमारे #बुद्धिजीवी तबके को 'डेंगी' ने डँस लिया है जो मनोवैज्ञानिक तौर पर लाईलाज है।वह अपना सारा समय और उर्जा 'डेंगी बनाम डेंगू' में लगा देता है कोल्हू के बैल की तरह।वह यह समझने को तैयार नहीं कि हर भाषा और संस्कृति अपने मिजाज से विदेशी चीजों को ग्रहण करती है।

अंग्रेज़ी का Hospital हिन्दी में अस्पताल हो जाता है, भारत का चंपी अंग्रेज़ी में Shampoo हो जाता है, वैसे ही अंग्रेज़ी का India #फ्रांसीसी भाषा में Inde हो जाता है, यू#नानी का  Alexander #फारसी में #सिकंदर और संस्कृत में #अलक्षेन्द्र हो जाता है।
लेकिन पढ़ुआ तबके पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उसे देह से प्यार है, मर्म से नहीं। #रूप से #आसक्ति है, #विषयवस्तु से लगाव नहीं।

अब कुछ आकड़ों में बात हो जाए। इतनी इंग्लिश-विंग्लिश  जान के भी--
कितने #पेटेंट कराये?
कितने #मौलिक_शोध कियो?
कितने #सामाजिक_अन्वेषण कियो?
जनता तक सुविधाएँ पहुँचाने के लिए कौन सी असरदार तरकीबें निकालीं?
और तो और,
इस देश को भाँति-भाँति से गरियाने के सिवा कोई काम कियो?
#भारतीय_मन को साधा ?
साधा तो नकल मारी या अकल से कुछ कियो?

खैर, #चन्द्रगुप्त तो बिखरे पड़े हैं, उन्हें पहचाने, ऐसा #चाणक्य चाहिए जिसकी संभावना को समृद्ध करना हमारा सामूहिक दायित्व है।और यह' देसी मुर्गी, #विलायती_बोल' से नहीं होने वाला ।

इतना कुछ कहने का भी हमारे हुक्मरान और #बुद्धिविलासी तबके पर कोई असर पड़ेगा, इसका मुझे कोई भ्रम नहीं है।

इसी पीड़ा को राहु-केतु यानी दुष्टों की वंदना करने के बाद #तुलसीदास ने कुछ यूँ बयान किया है:

गुन अवगुन जानत सब कोई।
जो जेहि भाव नीक तेहि सोई।।

#हिन्दी_दिवस


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