Monday, October 19, 2015

पुरस्कार -वापसी पुराण: 'गाय का गोबर' बनाम 'हाथी की लिद'


एक कहावत है : नंगा डरे खुदाय...
माने कि नंगई पर उतर जाओ तो इंसान क्या खुदा भी आपसे डरेगा।
अब ये पुरस्कार-लौटाऊ  लोग बाजार को गाली देकर बाजार में छा जाना चाहते हैं।
वाह गुरू! लिखोगे दरबारी- खानदानी स्टाइल बुक के हिसाब से और चाहोगे कि जनता यानी बाजार तुम्हें गोद में बिठा ले!
भई तुलसी-कबीर-भारतेन्दु-प्रेमचंद का बाजार तो जनता के पाकेट और दिल  से होकर जाता है लेकिन आपकी जनता यानी पाठक को बाजार से चिढ़ है। क्यों?

आपमें से ज्यादातर अपने ही घरों में नही पढ़े जाते अपने पोते-पोतियों द्वारा तो दूसरे क्या खाक पढ़ेंगे आपको।
आप एक पुरानी टेक्नोलाजी यानी शुद्ध छपाई/प्रिंट माध्यम की ऊपज हैं, आपकी सोच और तिकड़म सब उसी के ईर्दगिर्द हैं जबकि नई पीढ़ी ने अपने लिए नए माध्यम और नए लेखक तलाश लिए हैं जो उनकी नई भाषा और कुंठा-मुक्त आशाओं और सपनों को पंख देते हैं।
एक मौका है कि नया कुछ लिखें इसके पहले पाठकों पर कुछ शोध कर लें , समाज की नब्ज पहचान लें ताकि जो आप निकालें उसका अंजाम  'हाथी की लीद' के बजाए 'गाय के गोबर' सा हो।
गाय से कहीं आपकी 'सेकुलर आत्मा' को चोट तो नहीं पहुँचेगी न? ऐसा हो तो उसकी जगह जिस किसी भी जानवर का गोबर  वैज्ञानिक रूप से उचित लगे, पढ़  लीजियेगा।
ये लेखक दोयम या प्रथम या कोई सुपर-डुपर दर्जे के हैं यह तो इनकी आयातित कुँठाओं का ज्वार उतर जाने  के बाद जब पुरस्कार लौटाने के बावजूद इनके नये पाठकों की संख्या में इजाफा नहीं होगा तो खुद ही पता चल जाएगा।
तबतक इनकी हालत हिन्दी-अंग्रेजी के कुछ उन अखबारों की तरह है जिनके पाठक /श्रोता वहीं हैं जो वहाँ  काम करते हैं और जिनके लेख वहाँ छपते हैं ।

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