Saturday, November 28, 2015

टीवी पर मुस्लिम कठमुल्ले ही दिखते, क्यों?

टीवी पर अपना पक्ष रखने के लिए हिन्दू-सिख-ईसाई-जैन-बौद्धों में से विशेषज्ञ बुलाये जाते हैं जबकि मुसलमानों में से सिर्फ कठमुल्ले, क्यों?
अब्दुल कलाम या आरिफ मोहम्मद खान या रसखान या रहीम या कबीर या दारा शिकोह जैसे लोग मुसलमानों के आइकाॅन क्यों नहीं हैं?

हिन्दुओं में आदित्यनाथ भी हैं लेकिन मुसलमानों का प्रतिनिधित्व ओवैसी-आजम ही करते देखे जाते हैं और ऐसा इसलिए कि आरिफ मोहम्मद खान जैसों को अपने समाज में पूछ नहीं है क्योंकि वे कठमुल्लापन से दूर हैं।अगर कल वे भी समान नागरिक संहिता के खिलाफ उतर जाएँ औरंगजेब के गुणगान करने लगें तो उन्हें कोई भी पार्टी सर-आँखों पर बिठाकर रखेगी।
विश्वास न हो तो किसी भी उर्दू अखबार के मुख्य पृष्ठ के एक हफ्ते की सुर्खियों पर नजर डाल लीजिए,  आपको मुस्लिम समाज की सोच और  नेतृत्व की हालत का पता चल जाएगा ।
मतलब यह कि मीडिया को दोष देने के पहले अपने अंदर भी झाँकना जरूरी है।
कोई भी राजनीतिक दल थाली में परोसकर आपके अधिकार नहीं देना चाहेगा, मुसलमानों को कठमुल्लों की जगह अपने मध्यवर्ग को आगे लाना होगा और बोद्धिक विमर्श को  कठमुल्लों को आउटसोर्स करने से बचना होगा नहीं तो यह अवसर दोबारा आसानी से हाथ नहीं आनेवाला।
जैसे औरंगजेब को हिन्दू जज़िया देते थे वैसे ही आज का मुसलमान हिन्दू बहुल सेकुलर पार्टियों को वोट रूपी जज़िया देकर सुरक्षित और गर्व महसूस करता है जो घोर अराष्ट्रीय होने के साथ-साथ संविधान पर तमाचा है क्योंकि सुरक्षा और कानून-व्यवस्था एक रूटीन जिम्मेदारी है जिससे कोई भी सरकार बच नहीं सकती।
इस तरह से सच्चाई बयान करनेवाले को असहिष्णु का तमगा भी आसानी से मिल जाता है क्योंकि भारतीय संदर्भ में सहिष्णुता का मतलब है दोहरा व्यवहार-- किसी मुसलमान दंपति को हम अपना मकान किराए पर नहीं देना चाहते लेकिन यह भी नहीं कहना चाहते कि हम आपको इसलिए मकान नहीं देना चाहते कि हमें आपपर विश्वास नहीं है।फ़ैज़ साहब ने लिखा था:
हम तो रहे अजनबी कितनी मुलाक़ातों के बाद।

अगर सोशल मीडिया और मोबाइल के दौर में भी यह दोहरापन और अजनबीपन दूर नहीं हुआ तो बहुत चिन्ता की बात है जिसके लिए मीडिया को दोष देना वैसे ही है जैसे किसी प्रिय व्यक्ति की मौत का टेलीग्राम देनेवाले डाकिया को ही उस मौत का जिम्मेदार मान लिया जाए ।

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