Friday, December 11, 2015

मानसिक गुलामी के सवाल पर शून्य बटा सन्नाटा क्यों है?

दोस्तो,
 पिछले पाँच सालों से देशहित के मुद्दों पर हमलोग गहन विमर्श करते रहे हैं ।ऐसा लगता है यह देश,  खासकर इसका युवा वर्ग, आजादी के बाद पहली बार अपने को  एक पुनर्जागरण का हिस्सा मान रहा है । हर चीज पर सवाल पूछना और इसमें तर्क और तथ्य के आगे किसी आइकाॅन की भी नहीं सुनना, इस नवजागरण की पहचान बन गई है।और इसी समुद्रमंथन से कुछ सवाल निकल रहे हैं जो चिग्घार-चिग्घार कर अपने जवाब माँग रहे हैं:
1.दो हजार सालों तक -1750 तक -दुनिया की अर्थ व्यवस्था के एक चौथाई का हिस्सेदार भारत हजार सालों (दसवीं सदी से 1947 तक) तक कैसे गुलाम रहा और इसकी मानसिक गुलामी आजतक क्यों बरकरार है?
2. समावेशी और सहिष्णु होना इस बात की गारंटी नहीं है कि दूसरे भी ऐसा ही होंगे।फिर भी अंतिम चार सिख गुरुओं, कबीर, शिवाजी, रणजीत सिंह जैसे गिने-चुने लोगों को छोड़ दें तो 10 वीं सदी से आज तक इस मामले में क्यों शून्य बटा सन्नाटा सा है कि गैरसहिष्णु और मतांतरणवादी मजहबों से कैसे निपटा जाए?
अमेरिका ने इस पर अपनी राय जाहिर कर दी है, यूरोप भी समझ चुका है, इस्राइल ने इसका जवाब ढूँढ लिया है लेकिन भारत की राजनीति अभी भी सेकुलर-कम्युनल की वोटबैंक राजनीति से नहीं उबर पा रही।
दूसरों का क्या कहूँ, मुझे खुद सेकुलर-लिबरल-लेफ्ट-इस्लामपरस्त सोच से मुक्त होने में 20 बरस लग गए।वह भी अपनी पढ़ाई की वजह से नहीं, संयोग से एक जानेमाने फिल्मकार की सोहबत से।
आपकी टिप्पणियों की प्रतीक्षा रहेगी ।

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