Saturday, December 12, 2015

हिन्दी खबरिया टीवी चैनलों का उर्दू-फ़ारसी प्रेम

(श्री नरेश सचदेव ने अपनी वाल पर हिन्दी खबरिया टीवी चैनलों द्वारा प्रयुक्त उर्दू शब्दों की एक सूची डाली है जिनमें से अनेक ऐसे हैं जो लोग व्यवहार में नहीं लाते।वे इससे चिंतित है । इसी सूची और चिंता पर मेरी टिप्पणी ।)
आपने हिन्दी चैनलों में इस्तेमाल हो रहे शब्दों की एक सूची बनाई, इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं।
आप इनमें से उन शब्दों के प्रयोग से खुश नहीं हैं जो आसानी से समझ में नहीं आते।
यह सहज और जिम्मेदारी-बोध से भरी बात है जो आमतौर पर एक संवेदनशील इंसान को दुःख पहुँचाती है।अगर संवेदनशील होना अच्छा तो दुखी होना भी स्वाभाविक है।और यह जो दुख है वह हमें माँजता है, चमकाता है और विरले ही दुःख के इस दैवी रूप का दर्शन कर पाते हैं।आप इस अर्थ में भाग्यशाली हैं ।
हिन्दी-उर्दू को लेकर जो बात आपने नोटिस की है वह तीन सौ साल पुरानी है और सामाजिक-साँस्कृतिक पतन और अपने ऊपर विश्वास की कमी से पैदा होती है। ऊँचे वर्गों के समाज से कटे होने का भी सबूत है ।
यह अकारण नहीं है कि हिन्दी का कोई भी बड़ा कवि दरबारी नहीं था: कबीर, मीरा, तुलसी, जायसी, रसखान या सूर।जबकि उर्दू का शायद ही बड़ा शायर हो जो दरबारी न हो किसी न किसी रूप में: ग़ालिब, मीर, ज़ौक़, ताँबा आदि।इसमें मीर को छोड़ दें तो उर्दू वालों को भी शब्दकोश लेकर बैठना पड़ता है, इतना अधिक ग़ुलाम हैं ये लोग फ़ारसी प्रभाव के।
एक दौर था जब जर्मनी का राजा कहता था कि वह सिर्फ घोड़े से जर्मन में बात करेगा , क्योंकि वह चर्च के दबाव में लैटिन की अभिजात संस्कृति से आक्रांत था।यही हाल शेक्सपियर के समय में अंग्रेज़ी का था जो गँवारों की भाषा समझी जाती थी।

अब जरा ख़बरों पर नज़र डालिए । कितनी ख़बरें आपसे-हमसे जुड़ी होती हैं?
जनता का दबाव और बाजार का प्रभाव (टीआरपी) न होता तो आपकी लिस्ट बहुत लंबी होती क्योंकि हिन्दी भाषी लोगों में मानसिक ग़ुलामी सर्वाधिक है।
जैसे आज अंग्रेज़ी की ग़ुलामी है वैसे ही कभी 700 सालों तक फ़ारसी की ग़ुलामी थी जिसका असर अभी तक वैसे है जैसे धर्म-प्राण समाज पर अनुपयोगी सेकुलरिज़म का जिसे थोपा गया 1971 में इंदिरा गाँधी द्वारा।उद्देश्य था: फूट डालो और राज करो।
आपकी नज़र पैनी है , इसके लिए ईश्वर का धन्यवाद करिये।आप मानसिक ग़ुलामी से मुक्त हैं।
भाषा का लिपि से गहरा रिश्ता है।आज के मोबाइल युग में लिपि ज्ञान होना काफी नहीं है , उसका तकनीकी ज्ञान भी जरूरी है जो हाल में मेरे एक छात्र ने दिया।आप भी अपने घर या आॅफिस में किसी युवा से सीख सकते हैं, लेकिन वह इस बहस का मुद्दा तो एकदम नहीं था।
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