Sunday, December 13, 2015

लत, लछन, बाई मरले पर जाई



जैसे आज अंग्रेज़ी बोलकर हम अपने पढ़े-लिखे होने का बिन-माँगा प्रमाण पेश करते रहते हैं वैसे ही अरबी-फ़ारसी के शब्दों का बिना वजह  इस्तेमाल कर हम अपने सेकुलर-अभिजात होने का।
दिल्ली सल्तनत, अफगान और मुगलिया शासन में फ़ारसी राजभाषा थी और इसका रोब-दाब वैसे ही था जैसे लगभग सात दशकों से भारतीय लोकतंत्र की सबसे पुरानी पार्टी काँग्रेस में नेहरू परिवार का।
ऐसे बुद्धिजीवी कुकुरमुत्ता की तरह मिल जाएँगे जो
उदार-सेकुलर-लोकतांत्रिक-वामपंथी आदि  हैं लेकिन देश में उन्हें सिर्फ नेहरू-खानदान  वाली काँग्रेस पार्टी का शासन चाहिए।
इस समस्या को जब दस-जनपथ की ड्यूटी पर लगे एक सिपाही लोहा सिंह के सामने रखा तो उन्होंने झट से जवाब दिया:
लत, लछन, बाई मरले पर जाई ।

धन्य हो लोहा सिंह ! जो बात बताते प्रोफेसर-पत्रकारों के गले में कफ जमने लगता हो  वो आपने एक झटके में साफ़ कह दी।दादी ठीक कहती थी:
जे जेतना पढ़ुआ उ ओतना भढ़ुआ ।.

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