Thursday, December 24, 2015

कड़कड़डूमा अदालत में नाबालिगों द्वारा हत्या के निहितार्थ

कड़कड़डूमा अदालत परिसर में अंजाम दी गई हत्या की वारदात यह चिल्ला-चिल्ला कर कहती जाप पड़ती है कि  बाल-अपराध कानूनों की भारतीय संदर्भ में तत्काल समीक्षा की जाए ।
नाबालिग अपराधी को लेकर भारत के कानून यूरोपीय जरूरत की नकल लगते हैं।एक तरफ तो यूरोपीय दंपति बच्चे पैदा करने और पालने का 'झंझट' मोल नहीं लेना चाहते तो दूसरी तरफ अपनी आबादी को भी विलुप्त होने से बचाना चाहते हैं।
पहली चाहत टूटे हुए परिवार और आवारा-अपराधी बच्चे का कारण है और दूसरी चाहत इन अपराधी बच्चों को दंड से बचाने का।
यह बूढ़ी होती आबादी का लक्षण है जिसे एक युवा आबादी वाले देश के नक्काल हुक्मरानों ने ओढ़ लिया है।

भारत में न बच्चे के लालन-पालन को झंझट मानते हैं और न ही यहाँ आबादी के विलुप्त होने का संकट है।
एक तरफ तो हम कहते हैं कि हमारी आबादी का 75 प्रतिशत युवा हैं और दूसरी तरफ उन देशों के बाल-कानूनों की नकल कर रहे हैं कि जहाँ की बहुसंख्य आबादी बुजुर्गों की श्रेणी में है!
ऐसी ही मानसिकता पर क्षुब्ध होकर प्रसिद्ध साहित्यकार आक्टेवियो पाज़ ने कहा था कि नक्काली में भारत के बुद्धिजीवी बेजोड़ हैं ।

काश इन नक्कालों को गाँव के सामान्य स्कूलों में पढ़ाया जानेवाला यह नीतिउपदेश कोई समझा देताः

लालयेत पंच वर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत।
प्राप्तेषु षोड्से वर्षे पुत्रं मित्रमिवाचरेत ।।

(नोटः यह पोस्ट डा त्रिभुवन सिंह से इस विषय पर विमर्श,  खासकर टूटे परिवारों का तर्क, से संवर्धित है।)
Tribhuwan Singh

#कड़कड़डूमा_हत्याकांड
#बाल_अपराध #नाबालिग_कानून #बालकानून #युवाओं_का_देश #बुजुर्गों_का_देश
#टूटे_परिवार_अपराधी_बच्चे #भारत_और_यूरोप

0 Comments:

Post a Comment

Subscribe to Post Comments [Atom]

<< Home