Friday, December 4, 2015

जेएनयू में कभी सच्ची सहिष्णुता थी क्या?

#जेएनयू के #झेलम_हाॅस्टल के एक छात्र #जीतेन्द्र_धाकर को इसलिए अपने #वार्डन का कथित रूप से #कोपभाजन बनना पड़ा कि वह #वैदिक विधि यानी #हवन करके अपना जन्मदिन मना रहा था।हवन सामग्री, #धूप_दीप सब वार्डन साहब के #जूतों_की_भेंट चढ़ गए।
असलियत तो पूरी छानबीन से ही सामने आएगी लेकिन 1980 के दशक के माहौल को आधार माने तो जेएनयू कभी #सहिष्णु नहीं था।वहाँ सहिष्णुता का मतलब था विभिन्न
#वामपंथी_समाजवादी छात्र संगठनों में एक-दूसरे को
#झेलने_की_सहमति। #इस्लामी_गुटों को #वामपंथी संगठनों में #ननिहाल जैसा स्नेह मिलता था, इसलिए अलग से बैनर लगाने की जरूरत नहीं पड़ती थी।
#ओडीशा और #बंगाल की लड़कियाँ #सरस्वती_पूजा करती थीं , इसे किसी तरह सब झेल पाते थे।
याद है 1988-89 में कावेरी ढाबा पर वरिष्ठ काँग्रेस नेता और वर्तमान राष्ट्रपति #प्रणव_मुखर्जी को #एनएसयूइई ने #व्याख्यान के लिए बुलाया था।आयोजकों को जब यह लगा कि कोई गैरकाँग्रेसी श्रोता-दर्शक नहीं मिलेगा तो हर व्यक्ति को 50 रूपये देने का वादा कर दिया गया।फिर भी #श्रोता_दर्शक नहीं मिले।
ऐसे में सिर्फ #विज्ञान के छात्रों में #राष्ट्रवादी_विचार के लोगों की #स्वीकार्यता थी, शेष लोग उन्हें नेहरू जी की परमवैज्ञानिक सोच के आलोक में सर्टिफाई कर देते थेः
#विज्ञान_पढ़नेवालों_की_सोच_अवैज्ञानिक होती है।

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