हर विश्वविद्यालय में 'बलि' के लिए रोहित तैयार किए जाते हैं
रोहित वेमुला की आत्महत्या और हम
सरकारी संस्थानों के प्रमुख अपने आकाओं को खुश करने के लिए किसी हद तक झूठ या फरेब रच सकते हैं।दूसरे लीक से हटकर काम करनेवाले को, खासकर निष्पक्ष होकर ईमानदारी से काम करनेवाले को, किसी भी आरोप में कभी भी फँसाया जा सकता है।और इस तरह के फर्जीवारे में नीचे से लेकर ऊपर तक सब शामिल रहते हैं--कुलपति से लेकर चपरासी तक।अद्भुत आकर्षण होता है इस तरह के 'राष्ट्रीय' कार्य में जो सभी जाति ,मजहब, क्षेत्र और भाषा के लोगों को एक सूत्र में पीरो देता है।
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विश्वविद्यालयों में जो पतित राजनीति होती है उसके सामने पेशेवर नेता भी शरमा जाएँ।
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रोहित जैसों को अगर संभाला नहीं गया तो विश्वविद्यालयों में राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता भले पैदा हों, पढ़ाई-लिखाई और मौलिक शोध सपना ही रहेगा।
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वैसे दलित, महिला, अल्पसंख्यक आदि लेबलों से ऊपर उठकर अगर मुद्दों को नहीं देखा गया तो देश की सबसे मौलिक और छोटी ईकाई व्यक्ति नेस्तनाबूद हो जाएगा, नागरिक और नागर बोध कहीं बचेगा नहीं।काश हम व्यक्ति को टूटने से बचा पाते तो विनोद आत्महत्या नहीं करता।
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लेकिन यह कहना ऐसा इसलिए हुआ है कि वह 'दलित' था तो इससे बड़ा झूठ नहीं हो सकता ।अभी इन पंक्तियों के लिखे जाते वक्त अनगिनत छात्र-छात्राएँ, शिक्षक-शिक्षिकाएँ विश्वविद्यालयों के बुद्धिविलासी-बुद्धिविरोधी- बुद्धिवंचक-बुद्धिपिशाचों की साज़िशों के शिकार बनाए जा रहे होंगे और इन साज़िशकर्ताओं और उनके शिकार निर्दोष लोगों में औरों के अलावा 'दलित' भी होंगे।
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याकूब मेमन तो कोर्ट से सजा पाया अपराधी था और अपराध के 22 साल बाद उसे मृत्युदंड मिल रहा था।मुझे अगर विरोध होता तो मृत्युदंड से न कि याकूब मेमन को फाँसी से जैसा कि सेकुलरबाज़ गिरोह आम तौर पर करता है।लेकिन याकूब मेमन के प्रति सहानुभूति रखनेवाले पर अनुशासनात्मक कार्रवाई करना या उसके लिए धरना-प्रदर्शन को गैरकानूनी करार देना खतरनाक है।
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उससे भी ज्यादा खतरनाक है जीवित व्यक्ति के लाश बन जाने का इंतज़ार क्योंकि यह स्थिति कब किस पर किस रूप में आ जाए, कहना मुश्किल है।रोहित ने अपने सुसाइड नोट में किसी के खिलाफ कुछ नहीं लिखा है लेकिन अपने अंदरूनी खालीपन की तरफ इशारा किया है जो पैदा होता है सपनों के मर जाने से या अपनों पर से विश्वास उठ जाने से।
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कौन थे वे रोहित के अपने? वह व्यवस्था जिसने उसे छह महीने से छात्रवृत्ति नहीं दी थी और जिसके कारण उसे 50 हजार रुपये कर्ज लेने पड़े थे? दौड़ने के लिए दौड़ते लोग जो प्यार और स्नेह भी सेल्फी के लिए करते हैं?
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'जय भीम' से चिट्ठी का अंत करनेवाले रोहित ने किसी भीमवादी साथी को अपनी व्यथा-कथा कहने की आवश्यकता क्यों नहीं महसूस की? बाबा साहेब डा भीमराव को अपना आदर्श माननेवाले का क्या खुद से विश्वास उठना आसान है?
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ईश्वर रोहित के परिवार वाले को इस सदमे से उबरने की शक्ति दे।साथ ही हम सब यह याद रखें कि रोहित हिन्दी की 'व्यक्तिवाचक ' नहीं बल्कि 'जातिवाचक' संज्ञा है जिसे इस देश के लगभग हर विश्वविद्यालय में तैयार किया जा रहा है 'बलि' के लिए।
सरकारी संस्थानों के प्रमुख अपने आकाओं को खुश करने के लिए किसी हद तक झूठ या फरेब रच सकते हैं।दूसरे लीक से हटकर काम करनेवाले को, खासकर निष्पक्ष होकर ईमानदारी से काम करनेवाले को, किसी भी आरोप में कभी भी फँसाया जा सकता है।और इस तरह के फर्जीवारे में नीचे से लेकर ऊपर तक सब शामिल रहते हैं--कुलपति से लेकर चपरासी तक।अद्भुत आकर्षण होता है इस तरह के 'राष्ट्रीय' कार्य में जो सभी जाति ,मजहब, क्षेत्र और भाषा के लोगों को एक सूत्र में पीरो देता है।
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विश्वविद्यालयों में जो पतित राजनीति होती है उसके सामने पेशेवर नेता भी शरमा जाएँ।
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रोहित जैसों को अगर संभाला नहीं गया तो विश्वविद्यालयों में राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता भले पैदा हों, पढ़ाई-लिखाई और मौलिक शोध सपना ही रहेगा।
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वैसे दलित, महिला, अल्पसंख्यक आदि लेबलों से ऊपर उठकर अगर मुद्दों को नहीं देखा गया तो देश की सबसे मौलिक और छोटी ईकाई व्यक्ति नेस्तनाबूद हो जाएगा, नागरिक और नागर बोध कहीं बचेगा नहीं।काश हम व्यक्ति को टूटने से बचा पाते तो विनोद आत्महत्या नहीं करता।
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लेकिन यह कहना ऐसा इसलिए हुआ है कि वह 'दलित' था तो इससे बड़ा झूठ नहीं हो सकता ।अभी इन पंक्तियों के लिखे जाते वक्त अनगिनत छात्र-छात्राएँ, शिक्षक-शिक्षिकाएँ विश्वविद्यालयों के बुद्धिविलासी-बुद्धिविरोधी- बुद्धिवंचक-बुद्धिपिशाचों की साज़िशों के शिकार बनाए जा रहे होंगे और इन साज़िशकर्ताओं और उनके शिकार निर्दोष लोगों में औरों के अलावा 'दलित' भी होंगे।
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याकूब मेमन तो कोर्ट से सजा पाया अपराधी था और अपराध के 22 साल बाद उसे मृत्युदंड मिल रहा था।मुझे अगर विरोध होता तो मृत्युदंड से न कि याकूब मेमन को फाँसी से जैसा कि सेकुलरबाज़ गिरोह आम तौर पर करता है।लेकिन याकूब मेमन के प्रति सहानुभूति रखनेवाले पर अनुशासनात्मक कार्रवाई करना या उसके लिए धरना-प्रदर्शन को गैरकानूनी करार देना खतरनाक है।
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उससे भी ज्यादा खतरनाक है जीवित व्यक्ति के लाश बन जाने का इंतज़ार क्योंकि यह स्थिति कब किस पर किस रूप में आ जाए, कहना मुश्किल है।रोहित ने अपने सुसाइड नोट में किसी के खिलाफ कुछ नहीं लिखा है लेकिन अपने अंदरूनी खालीपन की तरफ इशारा किया है जो पैदा होता है सपनों के मर जाने से या अपनों पर से विश्वास उठ जाने से।
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कौन थे वे रोहित के अपने? वह व्यवस्था जिसने उसे छह महीने से छात्रवृत्ति नहीं दी थी और जिसके कारण उसे 50 हजार रुपये कर्ज लेने पड़े थे? दौड़ने के लिए दौड़ते लोग जो प्यार और स्नेह भी सेल्फी के लिए करते हैं?
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'जय भीम' से चिट्ठी का अंत करनेवाले रोहित ने किसी भीमवादी साथी को अपनी व्यथा-कथा कहने की आवश्यकता क्यों नहीं महसूस की? बाबा साहेब डा भीमराव को अपना आदर्श माननेवाले का क्या खुद से विश्वास उठना आसान है?
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ईश्वर रोहित के परिवार वाले को इस सदमे से उबरने की शक्ति दे।साथ ही हम सब यह याद रखें कि रोहित हिन्दी की 'व्यक्तिवाचक ' नहीं बल्कि 'जातिवाचक' संज्ञा है जिसे इस देश के लगभग हर विश्वविद्यालय में तैयार किया जा रहा है 'बलि' के लिए।
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