Saturday, March 26, 2016

डा नारंग की जगह अगर डा अहमद होते तो क्या होता?


डा नारंग की जगह अगर डा अहमद होते तो क्या होता?

इस्लाम कभी गलत नहीं होता क्योंकि इसमें अनैतिक को भी मझहबी तौर पर हलाल या सही मान लिया गया है जैसे डा नारंग की हत्या कोई गैरवाजिब हिंसा नहीं बल्कि एक काफ़िर के साथ किया गया इस्लाम-सम्मत व्यवहार है।
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वैसे ही जैसे ईराक़ में आईएसआईएस के लोगों द्वारा यज़िदी महिलाओं के साथ बलात्कार या उनकी सेक्स-गुलाम के रूप में खरीद-फरोख्त।मुसलमानों में भी जिन्हें पक्का या सुन्नत नहीं माना जाता (जैसे अहमदिया, बलोच, शिया) उनके साथ भी ऐसा व्यवहार इस्लाम-सम्मत है।ऐसा नहीं होता तो इन समुदायों पर अत्याचार की घटनाओं के बाद भारत में कभी कोई धरना -प्रदर्शन जरूर होता जैसे इस्राइल से जुड़ी घटनाओं पर होता है लेकिन आईएसआईएस से जुड़ी घटनाओं पर नहीं ।
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दूसरे, इस्लाम वस्तुतः मजहब के लबादे में चाहे जैसे हो सत्ता-प्राप्त करने की विचारधारा है जैसे साम्यवाद।दोनों ही अंतरराष्ट्रीय हैं यानी एक मुसलमान या कम्युनिस्ट अपनी जन्मभूमि या जिस देश का वह नागरिक है उसके नियमों से बंधा हुआ भी नहीं है।
तभी तो भारत के हाथों बाँग्लादेश की हार से गुस्साये मुसलमान युवकों ने दिल्ली में विकासपुरी के डा नारंग की एक मामूली सी बात पर पीट-पीटकर हत्या कर दी;
पूरी दुनिया से मुसलमान युवक आईएसआईएस में शामिल होने ईराक़-सीरिया जा रहे हैं;
पेरिस और ब्रूसेल्स हमले आईएसआईएस के कौल पर वहीं के
स्थानीय मुसलमानों ने किए। क्यों? क्योंकि गैर-मुसलमानों को मुसलमान बनाना या खत्म करना उनका अंतरराष्ट्रीय कर्तव्य है, इसमें देश कोई बाधा नहीं है।
आखिर, क्यों ओवैसी को 'भारत माता की जय' कहने में समस्या है ? क्यों साठ से अधिक की तीन बेटियों वाली शाहबानो को भारत की बाकी औरतों की तरह बराबरी के संवैधानिक अधिकार नहीं मिले ?
क्यों मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड कहता है कि उसके मामले में सुप्रीम कोर्ट को बोलने का अधिकार नहीं है?
यह सब इसलिए कि शरीया के द्वारा ही पूरी दुनिया में इस्लामी शासन लाया जा सकता है।कश्मीर में अघोषित शरीया लागू करके ही वहाँ के हिन्दुओं का जातिनाश किया गया।
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अब लौटते हैं डा नारंग की हत्या पर। यह हत्या एकदम स्वतः स्फूर्त नहीं थी (क्योंकि एक व्यक्ति कई अन्य लोगों को बुलाकर लाया था पीटने के लिए) और न ही इस्लाम-विरोधी।संभव है कि डा नारंग की जगह अगर डा अहमद होते तो कम-से-कम उनकी हत्या तो नहीं ही होती।जी बिलकुल, एक काफ़िर की हत्या को अल्लाह ताला ने मोसल्लम ईमानवालों पर शबाब के रूप में नाज़िल किया है।
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तीसरी बात, कुरानेपाक-शरीया-हदीस एक अविकसित -बर्बर समाज के त्रिस्तरीय वार-मैनुअल जान पड़ते हैं ।इसलिए सबसे ज्यादा गृहयुद्ध के शिकार इस्लामी देश हैं और दुनियाभर में इस्लाम और आतंकवाद एक दूसरे के पर्याय बन गए हैं।
[नोटः कुछ लोग यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि विकासपुरी-हत्याकांड में शांतिदूतों के साथ कुछ हिन्दू भी थे।वाह! कहीं वे उसी तरह के हिन्दू तो नहीं जैसे प्रणय राय या अजीत जोगी? वैसे बाँग्लादेशी लोग अपनी पहचान छिपाने के लिए अपने हिन्दू नाम भी रखते हैं, और वे ज्यादातर यूपी, बिहार, बंगाल या असम होकर ही दिल्ली पहुँचते हैं।डायरेक्ट फ्लाइट वाले तो कम ही होंगे!
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एक और बात, सेकुलर-कम्युनिस्ट-लिबरल ब्रिगेड के ज्यादातर लोग तो हिन्दू नामधारी ही हैं लेकिन कश्मीर में हिन्दुओं के नरसंहार, बलात्कार, पलायन, जातिनाश के लिए वे हिन्दुओं को ही जिम्मेदार ठहराते हैं, बहुमत शांतिदूतों को नहीं।
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मालदा, दादरी, वेमुला, जेएनयू मामले में राष्ट्रवादी हिन्दू और मानसिक-गुलाम सेकुलर हिन्दू का अंतर तो खुलकर सामने आ गया है।1962 के चीनी हमले का स्वागत करनेवाले कम्युनिस्टों में ज्यादातर हिन्दू ही थे और ऐसे ही लोग आज इस्लामिस्ट-इवांजेलिस्ट गिरोहों के हमकदम-हमराह हैं।
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इसलिए सवाल सिर्फ हिन्दू होने का नहीं है, सवाल बहुमत हिन्दू-हित (बिना किसी और के वाजिब हितों को नुकसान पहुँचाये) और देशहित के साथ और विरोध खड़े लोगों का है।आज पत्रकार तुफैल अहमद और राजनेता आरिफ मोहम्मद खान या लेखक तारेक फतह हिन्दू-हित यानी देशहित के साथ खड़े हैं । यह बात अलग है कि उनकी संख्या बहुत कम है, लेकिन है तो।]
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(Tribhuwan Singh जी की पोस्ट पर मेरा कमेंट।)

https://www.facebook.com/tribhuwan.singh.908/posts/1229804107049654

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