ममत्व की सुपारी नहीं है नारी के नाम!
माँ बनना एक जैविक प्रक्रिया है और माँ होना या ममत्व एक समाज-मनोवैज्ञानिक क्षमता जिसके लिए औरत होना आवश्यक नहीं।एक जन्मजात है तो दूसरी अर्जित या नैसर्गिक या दोनों।
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पति की माँ मे माँ की तलाश की शुरुआत तब होती है जब आपकी सास ने आपमें बेटी की तलाश की हो।लेकिन हमेशा शुरुआत ऐसी ही हो जरूरी नहीं।जो जागे सबेरा उसी का, जभी जागो तभी सबेरा।
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वैसे मुझे दुनिया के सबसे बड़े अधूरे सच में से एक यह लगता है कि 'नारी तुम केवल श्रद्धा हो' या दया-उदारता-ममता का सागर हो।
अर्द्धसत्य इसलिए कि यह बात एक औसत नारी अपनी संतानों पर लागू करती है, दूसरों की संतानों पर नहीं।
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इसके बरक्स एक औसत पुरुष दूसरों की संतानों के प्रति एक औसत नारी से ज्यादा उदार होता है और यही उदारता उसे और उसके पूरे परिवार को सामाजिक स्वीकार्यता दिलाती है।
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इस प्रकार दया-ममता का क्रेडिट कुछ इस तरह है कि परिवार की ईकाई में औरत का पलरा भारी है तो समाज में पुरुष का।दोनों मिलकर ही समाज के दया-माया-उदारता के कोटे को बमुश्किल पूरा कर पाते हैं!
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जिन समाजों में माँ-बाप के लिए यथोचित समय नहीं है वहाँ उनका मन रखने और उनके महत्व को रेखांकित करने के लिए मातृ-पितृ दिवस जैसी चीज़ें अक्सर मिल जाती हैं और जरूरी भी हैं।ऐसा ही समाज वृद्धाश्रम की जरूरत भी पैदा करता है क्योंकि संतानों के दिल में माँ-बाप के लिए जगह नहीं होती।
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