Thursday, August 4, 2016

नदीम भाई, राम राम!

नदीम भाई,
राम राम। आपकी इच्छा है कि मैं म्यांमार में आतंकवाद पर लिखूँ। मेरी प्रार्थना है कि म्यांमार में आतंकवाद पर आप लिखिये। इतना स्पष्ट है कि वहाँ पर मुसलमानों का कुछ-कुछ वही हाल है जो पाकिस्तान और बाँग्लादेश में हिंदुओं का है लेकिन उतना बुरा नहीं जितना कि अपने ही मुल्क की कश्मीर घाटी में हिंदुओं का।
आपको शायद याद हो कि कश्मीर में जेहादियों की अगुआई में और पड़ोसी मुसलमानों के मूक समर्थन से 1990 के दशक में लगभग तीन लाख हिन्दुओं का जातिनाश हुआ था। म्यांमार पर आपका ध्यान चला गया लेकिन कश्मीर ओझल रहा।
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जैसे इराक़-सीरिया में आईएस के अत्याचार आपका ध्यान खींच नहीं पाते अगर आप और आईएस हमलों के शिकार लोग शिया न हों लेकिन इस्राइल में हमलावर इस्लामी गुटों पर जवाबी कार्रवाई आपकी निगाह से बच नहीं पाती, वैसे ही मेरी एक व्यक्ति के रूप में निजी सीमाएँ हैं।
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हालाँकि इन सीमाओं को आप एक हिन्दू की सीमाएँ नहीं कह सकते क्योंकि एक मुसलमान के रूप में आप जो मुद्दे उठाते हैं उसे हिंदुओं का लिबरल-लेफ्ट तबका ख़ूब समर्थन देता है जबकि यही बात मुसलमानों के लिए सच नहीं है।
यानी इस्लामी मुद्दों पर आपको हिंदुओं का साथ ख़ूब मिलता है जबकि हिन्दू मुद्दों पर मुसलमानों का साथ लगभग नदारद रहता है।
इसको आप हिंदुओं की मूर्खता के नाम से जानते हैं जो सही मायने में उनकी ताक़त है जो उन्हें आख़री किताब और आख़री दूत के सिंड्रोम से बचाकर नयापन देती है।
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तुलसीदास कह गए हैं:
गन अवगुन जाने सब कोई।
जो जेहि भाव निक तेहि सोई।।

जाकि रही भावना जैसी।
प्रभु मूरति देखि तिन तैसी।।

आपके जवाब की प्रतीक्षा में,
आपका कृपापात्र,
चन्द्रकान्त।

Mn Nadeem

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