नोटबंदी, भारतबंद और बापू का 'हिन्द स्वराज'
नोटबंदी, भारतबंद और बापू का 'हिन्द स्वराज'
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आज़ादी के बाद यह पहला मौक़ा है जब किसी सरकारी फैसले (नोटबंदी) से अवाम ख़ुश है और उनकी ख़ुशियों के ठेकेदार नेता, बुद्धिजीवी और मीडिया बेहद नाख़ुश।
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हमलोग ख़ुशनसीब हैं कि इस दौर के हिस्सा हैं। यह दौर भारतीय मनीषा के नवजागरण का दौर है जिसमें भारत की जनता और भारत-हित-द्वेषी आमने-सामने हैं।ऐसे धर्मयुद्ध में मूक और तटस्थ वही हैं जो या तो घोर कायर हैं या किंकर्तव्यविमूढ़ या किसी त्याज्य संकल्प के ग़ुलाम जैसे महाभारत में भीष्मपितामह थे।...
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28 नवंबर का भारत बंद एक रूटीन बंद नहीं है। यह उन ताक़तों के शक्तिप्रदर्शन का दिन है:
जो जनसमर्थन नहीं मिलने से हताश होकर अराजकता फ़ैलाने पर उतारू हैं;
जो भाड़े के दहशतगर्दों से लेकर चीन, पाकिस्तान, नक्सलवादी, माओवादी या जेहादी किसी से भी हाथ मिलाने को तैयार हैं---
क्योंकि गरीबों के नाम पर देश के संसाधनों की लूट के दिन अब लदने वाले हैं और इंटरनेट- मोबाइल-सोशल मीडिया के कारण जनता को मूर्ख बनाना आसान नहीं रह गया है।
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यह धर्मयुद्ध दो विचारधाराओं के बजाय दो सभ्यता-दृष्टियों का संघर्ष भी है। नोटबंदी के विरोधी और भारतबंद के वैचारिक समर्थक अक्सर यह मानते हैं कि भारत में जो कुछ भी अच्छा है वह बहुमत हिंदुओं के बावजूद है जबकि नोटबंदी के समर्थक और भारतबंद के विरोधी आमतौर पर यह मानते हैं कि 1000 सालों की ग़ुलामी, नरसंहार, बलात्कार, भीषणतम आर्थिक और भौतिक अत्याचार के बावजूद हिंदुओं ने हिन्दुस्तान की आत्मा और अधिकांश शरीर को बचा लिया जबकि इस दौरान चीन छोड़ पूरी दुनियाभर की अन्य सभ्यताएँ मिट गईं।
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अपनी पुस्तक 'हिन्द स्वराज' में 108 सालों पहले गाँधी जी ने लिखा था कि ब्रिटेन की संसद 'बाँझ औरत' और 'वेश्या' की तरह व्यवहार करती है जबकि मीडिया जनता को अक़्सर गुमराह करती है।
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गाँधी जी आज ज़िंदा होते तो भारत की संसद और भारत की मीडिया के बारे में क्या कहते? क्या वह ब्रिटेन की संसद और मीडिया के बारे में तब की उनकी राय से अलग होता? जो भी हो, बापू यह जानकार बहुत ही आनंदित होते कि भारत की जनता अब सबकुछ जानती है, तभी तो वह राजधानी एक्सप्रेस पर सवार है और उसके नेता विपरीत दिशा में जाती ठेला गाड़ी पर।
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आज़ादी के बाद यह पहला मौक़ा है जब किसी सरकारी फैसले (नोटबंदी) से अवाम ख़ुश है और उनकी ख़ुशियों के ठेकेदार नेता, बुद्धिजीवी और मीडिया बेहद नाख़ुश।
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हमलोग ख़ुशनसीब हैं कि इस दौर के हिस्सा हैं। यह दौर भारतीय मनीषा के नवजागरण का दौर है जिसमें भारत की जनता और भारत-हित-द्वेषी आमने-सामने हैं।ऐसे धर्मयुद्ध में मूक और तटस्थ वही हैं जो या तो घोर कायर हैं या किंकर्तव्यविमूढ़ या किसी त्याज्य संकल्प के ग़ुलाम जैसे महाभारत में भीष्मपितामह थे।...
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28 नवंबर का भारत बंद एक रूटीन बंद नहीं है। यह उन ताक़तों के शक्तिप्रदर्शन का दिन है:
जो जनसमर्थन नहीं मिलने से हताश होकर अराजकता फ़ैलाने पर उतारू हैं;
जो भाड़े के दहशतगर्दों से लेकर चीन, पाकिस्तान, नक्सलवादी, माओवादी या जेहादी किसी से भी हाथ मिलाने को तैयार हैं---
क्योंकि गरीबों के नाम पर देश के संसाधनों की लूट के दिन अब लदने वाले हैं और इंटरनेट- मोबाइल-सोशल मीडिया के कारण जनता को मूर्ख बनाना आसान नहीं रह गया है।
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यह धर्मयुद्ध दो विचारधाराओं के बजाय दो सभ्यता-दृष्टियों का संघर्ष भी है। नोटबंदी के विरोधी और भारतबंद के वैचारिक समर्थक अक्सर यह मानते हैं कि भारत में जो कुछ भी अच्छा है वह बहुमत हिंदुओं के बावजूद है जबकि नोटबंदी के समर्थक और भारतबंद के विरोधी आमतौर पर यह मानते हैं कि 1000 सालों की ग़ुलामी, नरसंहार, बलात्कार, भीषणतम आर्थिक और भौतिक अत्याचार के बावजूद हिंदुओं ने हिन्दुस्तान की आत्मा और अधिकांश शरीर को बचा लिया जबकि इस दौरान चीन छोड़ पूरी दुनियाभर की अन्य सभ्यताएँ मिट गईं।
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अपनी पुस्तक 'हिन्द स्वराज' में 108 सालों पहले गाँधी जी ने लिखा था कि ब्रिटेन की संसद 'बाँझ औरत' और 'वेश्या' की तरह व्यवहार करती है जबकि मीडिया जनता को अक़्सर गुमराह करती है।
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गाँधी जी आज ज़िंदा होते तो भारत की संसद और भारत की मीडिया के बारे में क्या कहते? क्या वह ब्रिटेन की संसद और मीडिया के बारे में तब की उनकी राय से अलग होता? जो भी हो, बापू यह जानकार बहुत ही आनंदित होते कि भारत की जनता अब सबकुछ जानती है, तभी तो वह राजधानी एक्सप्रेस पर सवार है और उसके नेता विपरीत दिशा में जाती ठेला गाड़ी पर।
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