भारत बंद: ग्राहक से नागरिक बनते वोटर
भारत बंद: ग्राहक से नागरिक बनते वोटर
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राजनीति ने वोट के लिए जनता को महज ग्राहक बनाने की साज़िश रची, ग्राहक जो कम से कम दाम पर अधिक माल चाहता है। लेकिन एक वोटर के रूप में जनता पहले नागरिक होती है, उसके लिये अधिकार से कम महत्वपूर्ण उसका कर्तव्य नहीं होता।
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इससे राजनीति को परेशानी होती है क्योंकि अपने कर्तव्य निभानेवाले वोटर नेताओं से भी काम की आशा करते हैं। इस स्थिति से छुटकारा पाने के लिये नेता जनता को विशेष सुविधाएँ देने का वादा कर उन्हें कर्तव्य-विमुख करते हैं, यानि अधिकार...-केंद्रित राजनीति के सहारे जनता को ही जनहित के खिलाफ खड़ी कर देते हैं। ऐसे में लोग बिना पढ़े पास करना चाहते हैं और बिना मेहनत के मेहनताना चाहते हैं।
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धीरे-धीरे ऐसी स्थिति आती है जब कर्तव्य करनेवाले बहुत कम रह जाते हैं और अधिकार माँगनेवाले ज्यादा; काहिलों का सम्मान होने लगता है और कर्मठ लोगों की अवमानना; लेनेवाले बहुत ज्यादा और देनेवाले बहुत-बहुत कम; और फिर बराबरी के नाम पर बाँटने के लिए अशिक्षा, ग़रीबी, कुपोषण, तनाव, फिरकापरस्ती और हिंसा के अलावा कुछ ख़ास बचता नहीं।
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लेकिन एक दिन ऐसा आता है कि जनता को ख़ुद के पतन का अहसास होने लगता है, उसका सिर्फ ग्राहक बन चुका व्यक्तित्व अपने खोये नागरिक-रूप को पुनर्प्राप्त करता है और वह राजनीति के बहकावे में आने से इनकार कर देती है। नोटबंदी के खिलाफ विपक्ष के 'भारतबंद' और 'जनाक्रोश दिवस' को जनता ने ठेंगा दिखाकर अपने नावजागृत नागरिक-बोध की मजबूत उपस्थिति दर्ज़ करा दी है।
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इस बदलाव का सबसे ज़्यादा श्रेय मोबाइल, इंटरनेट और सोशल मीडिया पर सवार युवा वर्ग को जाता है जिसकी आबादी 70% से भी ज्यादा है और जो हर रोज 2 से 8 घंटे सूचना के सृजन और आदान-प्रदान में लगाता है तथा जिसे आसानी से बरगलाया नहीं जा सकता। मोदी इस युवा-भारत के सपनों के प्रतीक हैं, मोदी इस युवा भारत की ऊपज हैं ; यह बात अलग है कि मोदी- विरोधी उन्हें इस युवा-भारत का कारक मानकर उनपर बेसिर-पैर के हमले कर-कर के और ज्यादा लोकप्रिय बना रहे हैं।
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यह है बदलता हुआ भारत जिसे भाजपा समेत शायद ही कोई पार्टी समझने को तैयार है जबकि उसके इस्तेमाल की रणनीति सबके पास है।असल बात यह है कि मोदी के नेतृत्व में भाजपा सिर्फ इस बदलते भारत के पीछे-पीछे दौड़ने की कोशिश कर रही है, इसे नेतृत्व नहीं दे पा रही। पर यह भी सच है कि सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी के बाद मोदी ने भाजपा और संघ की हदबंदी को लांघते हुए जननायक की संभावनाओं से युक्त एक सख्सियत के रूप में अपनी ब्रांडिंग करने में सफलता पा ली है।
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आगे की स्थिति और दिलचस्प होनेवाली है। चाहे किसी पार्टी और विचारधारा का हो, सत्ताधारी तबका मोदी के सुधारवादी कदमों के खिलाफ खड़ा होगा; उसकी गोलबंदी और तेज़ होगी जब नोटबंदी जैसे अन्य फैसलों को सख्ती से लागू किया जाएगा। जनता की दुहाई देते हुए यह तबका जनहित को वैसे ही पंक्चर करेगा जैसे काला को सफेद करने की तैयारी का मौक़ा नहीं मिलने के कारण नोटबंदी का विरोध।
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लब्बोलुआब यह है कि एक अरसे बाद भारत को आज चन्द्रगुप्त और चाणक्य दोनों मिल गए से लगते हैं; जयचंदों और मीरज़ाफ़रों की अप्रत्याशित गोलबंदी तो यही कहती है। विचारधाराओं के मुरझाते गमलों की क्या जब राष्ट्रीयता और जन-नवजागरण के वन-उपवन लहलहा रहे हों!
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राजनीति ने वोट के लिए जनता को महज ग्राहक बनाने की साज़िश रची, ग्राहक जो कम से कम दाम पर अधिक माल चाहता है। लेकिन एक वोटर के रूप में जनता पहले नागरिक होती है, उसके लिये अधिकार से कम महत्वपूर्ण उसका कर्तव्य नहीं होता।
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इससे राजनीति को परेशानी होती है क्योंकि अपने कर्तव्य निभानेवाले वोटर नेताओं से भी काम की आशा करते हैं। इस स्थिति से छुटकारा पाने के लिये नेता जनता को विशेष सुविधाएँ देने का वादा कर उन्हें कर्तव्य-विमुख करते हैं, यानि अधिकार...-केंद्रित राजनीति के सहारे जनता को ही जनहित के खिलाफ खड़ी कर देते हैं। ऐसे में लोग बिना पढ़े पास करना चाहते हैं और बिना मेहनत के मेहनताना चाहते हैं।
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धीरे-धीरे ऐसी स्थिति आती है जब कर्तव्य करनेवाले बहुत कम रह जाते हैं और अधिकार माँगनेवाले ज्यादा; काहिलों का सम्मान होने लगता है और कर्मठ लोगों की अवमानना; लेनेवाले बहुत ज्यादा और देनेवाले बहुत-बहुत कम; और फिर बराबरी के नाम पर बाँटने के लिए अशिक्षा, ग़रीबी, कुपोषण, तनाव, फिरकापरस्ती और हिंसा के अलावा कुछ ख़ास बचता नहीं।
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लेकिन एक दिन ऐसा आता है कि जनता को ख़ुद के पतन का अहसास होने लगता है, उसका सिर्फ ग्राहक बन चुका व्यक्तित्व अपने खोये नागरिक-रूप को पुनर्प्राप्त करता है और वह राजनीति के बहकावे में आने से इनकार कर देती है। नोटबंदी के खिलाफ विपक्ष के 'भारतबंद' और 'जनाक्रोश दिवस' को जनता ने ठेंगा दिखाकर अपने नावजागृत नागरिक-बोध की मजबूत उपस्थिति दर्ज़ करा दी है।
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इस बदलाव का सबसे ज़्यादा श्रेय मोबाइल, इंटरनेट और सोशल मीडिया पर सवार युवा वर्ग को जाता है जिसकी आबादी 70% से भी ज्यादा है और जो हर रोज 2 से 8 घंटे सूचना के सृजन और आदान-प्रदान में लगाता है तथा जिसे आसानी से बरगलाया नहीं जा सकता। मोदी इस युवा-भारत के सपनों के प्रतीक हैं, मोदी इस युवा भारत की ऊपज हैं ; यह बात अलग है कि मोदी- विरोधी उन्हें इस युवा-भारत का कारक मानकर उनपर बेसिर-पैर के हमले कर-कर के और ज्यादा लोकप्रिय बना रहे हैं।
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यह है बदलता हुआ भारत जिसे भाजपा समेत शायद ही कोई पार्टी समझने को तैयार है जबकि उसके इस्तेमाल की रणनीति सबके पास है।असल बात यह है कि मोदी के नेतृत्व में भाजपा सिर्फ इस बदलते भारत के पीछे-पीछे दौड़ने की कोशिश कर रही है, इसे नेतृत्व नहीं दे पा रही। पर यह भी सच है कि सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी के बाद मोदी ने भाजपा और संघ की हदबंदी को लांघते हुए जननायक की संभावनाओं से युक्त एक सख्सियत के रूप में अपनी ब्रांडिंग करने में सफलता पा ली है।
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आगे की स्थिति और दिलचस्प होनेवाली है। चाहे किसी पार्टी और विचारधारा का हो, सत्ताधारी तबका मोदी के सुधारवादी कदमों के खिलाफ खड़ा होगा; उसकी गोलबंदी और तेज़ होगी जब नोटबंदी जैसे अन्य फैसलों को सख्ती से लागू किया जाएगा। जनता की दुहाई देते हुए यह तबका जनहित को वैसे ही पंक्चर करेगा जैसे काला को सफेद करने की तैयारी का मौक़ा नहीं मिलने के कारण नोटबंदी का विरोध।
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लब्बोलुआब यह है कि एक अरसे बाद भारत को आज चन्द्रगुप्त और चाणक्य दोनों मिल गए से लगते हैं; जयचंदों और मीरज़ाफ़रों की अप्रत्याशित गोलबंदी तो यही कहती है। विचारधाराओं के मुरझाते गमलों की क्या जब राष्ट्रीयता और जन-नवजागरण के वन-उपवन लहलहा रहे हों!
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