राष्ट्रगान पर अदालती हिचकी
राष्ट्रगान पर अदालती हिचकी
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राष्ट्रगान पर यह अदालती हिचकी इसलिये भी है कि भारत का बुद्धिजीवी वर्ग ख़ुद को विदेशी आँखों से देखने का अभ्यस्त है। मसलन उसे मजहबी राष्ट्रवाद, सभ्यतागत राष्ट्रवाद-सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, पश्चिमी राष्ट्रवाद की बारीकियों पर विमर्श के बजाये भारतीयता को सुदृढ़ करती नज़र आनेवाली हर चीज़ के खिलाफ सेकुलर-जिहाद की आदत है।
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मुझे ख़ुशी होगी अगर मैं ग़लत होऊं। लेकिन इसके लिये जरूरी है कि कोई मुझे "भारतीय बौद्धिकता के उद्भव और विकास" पर कोई पुस्तक, लेख आदि ही बता द...े।
लगे हाथ यह भी बता दे कि पिछले 200 सालों में भारत को भारत की दृष्टि से देखने की कोशिश (दयानंद, तिलक, गाँधी, अरविन्द, विवेकानंद, लोहिया आदि को छोड़कर) किन लोगों ने की और उनका क्यों और क्या हस्र हुआ?
इनसे यह तय होगा कि राष्ट्रगान, राष्ट्रीयता, राष्ट्र आदि पर हमारी बहसों का स्तर जैसा भी है क्यों है?
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अदालतों का क्या, वे आजतक भारतीय भाषाओं में न्याय की गारंटी नहीं कर पाईं, 3 करोड़ से ज़्यादा मामलों को निपटाने के लिये उपलब्ध संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल के लिये कुछ नहीं कर पाईं; एक आम शहरी का अदालत पर उतना ही विश्वास है जितना पुलिस, सरकारी ठेकेदार और दलाल पर।
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कुछ जजों में नावजागृत युवा भारत का ध्यान अपनी ओर खींचने की बेचैनी जरूर लग रही है। जज महोदय शायद यह लिखना भूल गए कि सिनेमा हॉल में जब भी राष्ट्रगान बजेगा दर्शक उसका पूरा सम्मान करेंगे।
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लेकिन विरोधियों की समस्या यह है कि वे यूरोपीय राष्ट्रीयता और भारत की सभ्यतागत राष्ट्रीयता में अंतर नहीं कर पाने के कारण टेक्नोलॉजी जनित वर्तमान देसी नवजागरण और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से वैसे ही डरे हुये हैं जैसे द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यूरोप; मानों पंडित जवाहरलाल नेहरू की ही तरह उनका सिर्फ शरीर भारत का हो लेकिन मन यूरोप का। किसी जमाने में ऐसे ही लोगों के मानस-पूर्वज बड़े गर्व से प्रचारित करते थे कि नेहरू जी के कपड़े सिलते पेरिस में और धुलते इटली में थे!
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नेहरवंश और उसके पायों की चूलें हिलने पर भारत के बौद्धिक वर्ग का बिलबिलाना आकस्मिक नहीं हैं; दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे पुरानी पार्टी (काँग्रेस) को एक परिवार के फैमिली बिज़नेस में तब्दील हो जाने से उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। वंश मोह में यूरोपीय लोकतांत्रिक संस्थाओं में वहाँ के बौद्धिकों की आस्था को भी भूल गए। यानी ये लोग ईमानदारी से नक़ल के भी काबिल नहीं हैं क्योंकि ये प्रचण्ड समाज-हंता मूर्खता के शिकार हैं जिसे आप मानसिक और बौद्धिक ग़ुलामी का कॉकटेल भी कह सकते हैं।
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पूरी दुनिया में ऐसे बौद्धिक नकलची बन्दर कहीं नहीं पाये जाते, यह मैं नहीं ऑक्टवियो पाज़ कह गए हैं।
2.12.16
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राष्ट्रगान पर यह अदालती हिचकी इसलिये भी है कि भारत का बुद्धिजीवी वर्ग ख़ुद को विदेशी आँखों से देखने का अभ्यस्त है। मसलन उसे मजहबी राष्ट्रवाद, सभ्यतागत राष्ट्रवाद-सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, पश्चिमी राष्ट्रवाद की बारीकियों पर विमर्श के बजाये भारतीयता को सुदृढ़ करती नज़र आनेवाली हर चीज़ के खिलाफ सेकुलर-जिहाद की आदत है।
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मुझे ख़ुशी होगी अगर मैं ग़लत होऊं। लेकिन इसके लिये जरूरी है कि कोई मुझे "भारतीय बौद्धिकता के उद्भव और विकास" पर कोई पुस्तक, लेख आदि ही बता द...े।
लगे हाथ यह भी बता दे कि पिछले 200 सालों में भारत को भारत की दृष्टि से देखने की कोशिश (दयानंद, तिलक, गाँधी, अरविन्द, विवेकानंद, लोहिया आदि को छोड़कर) किन लोगों ने की और उनका क्यों और क्या हस्र हुआ?
इनसे यह तय होगा कि राष्ट्रगान, राष्ट्रीयता, राष्ट्र आदि पर हमारी बहसों का स्तर जैसा भी है क्यों है?
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अदालतों का क्या, वे आजतक भारतीय भाषाओं में न्याय की गारंटी नहीं कर पाईं, 3 करोड़ से ज़्यादा मामलों को निपटाने के लिये उपलब्ध संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल के लिये कुछ नहीं कर पाईं; एक आम शहरी का अदालत पर उतना ही विश्वास है जितना पुलिस, सरकारी ठेकेदार और दलाल पर।
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कुछ जजों में नावजागृत युवा भारत का ध्यान अपनी ओर खींचने की बेचैनी जरूर लग रही है। जज महोदय शायद यह लिखना भूल गए कि सिनेमा हॉल में जब भी राष्ट्रगान बजेगा दर्शक उसका पूरा सम्मान करेंगे।
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लेकिन विरोधियों की समस्या यह है कि वे यूरोपीय राष्ट्रीयता और भारत की सभ्यतागत राष्ट्रीयता में अंतर नहीं कर पाने के कारण टेक्नोलॉजी जनित वर्तमान देसी नवजागरण और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से वैसे ही डरे हुये हैं जैसे द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यूरोप; मानों पंडित जवाहरलाल नेहरू की ही तरह उनका सिर्फ शरीर भारत का हो लेकिन मन यूरोप का। किसी जमाने में ऐसे ही लोगों के मानस-पूर्वज बड़े गर्व से प्रचारित करते थे कि नेहरू जी के कपड़े सिलते पेरिस में और धुलते इटली में थे!
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नेहरवंश और उसके पायों की चूलें हिलने पर भारत के बौद्धिक वर्ग का बिलबिलाना आकस्मिक नहीं हैं; दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सबसे पुरानी पार्टी (काँग्रेस) को एक परिवार के फैमिली बिज़नेस में तब्दील हो जाने से उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। वंश मोह में यूरोपीय लोकतांत्रिक संस्थाओं में वहाँ के बौद्धिकों की आस्था को भी भूल गए। यानी ये लोग ईमानदारी से नक़ल के भी काबिल नहीं हैं क्योंकि ये प्रचण्ड समाज-हंता मूर्खता के शिकार हैं जिसे आप मानसिक और बौद्धिक ग़ुलामी का कॉकटेल भी कह सकते हैं।
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पूरी दुनिया में ऐसे बौद्धिक नकलची बन्दर कहीं नहीं पाये जाते, यह मैं नहीं ऑक्टवियो पाज़ कह गए हैं।
2.12.16
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