फेसबुक पर ब्लॉक करने को लेकर असग़र वजाहत साहेब की वाल पर विमर्श
फेसबुक पर लोगों को ब्लॉक करने को लेकर प्रोफेसर असग़र वजाहत साहेब की वाल पर आज मेरे साथ हुये विमर्श की हूबहू साभार प्रस्तुति:
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●प्रो असग़र वजाहत (अव): फेस बुक पर जिसे लोग नापसंद करते है, जो घृणा फैला कर आहत करता है, गालियां देता है, प्रिय जनो का अपमान करता है उसे लोग ब्लॉक कर देते हैं।मतलब उससे सरोकार नहीं रहता।हम बच जाते हैं।संतोष होता है।खुशी भी होती होगी।क्या यह उचित और पर्याप्त है?
मैं किसी को ब्लाक नहीं करता।मेरा मानना है कि समाज विरोधी,घृणा फैलाने वाले,हिंसा का प्रचार करने वालों,जाति और धर्म के आधार पर देश की एकता को तोड़ने वालों को मेरे अकेले ब्लाक करने से क्या होगा।उनको तो जब तक भारतीय जनता नहीं ब्लाक करेगी तब तक कुछ नहीं होगा।
★चन्द्रकान्त प्र सिंह (चप्रस): हिन्दुस्तान के काफ़िरों ने सैकड़ों साल के नरसंहार-बलात्कार-अत्याचार के जिम्मेदार लोगों को कहाँ अपने जीवन में 'ब्लॉक' किया? आपकी सोच बड़ी सराहनीय है।
●अव: आपकी सोच बहुत छोटी है और भारत बहुत बड़ा देश है।
★चप्रस: आभार। आंकड़े नहीं, फ़तवे आपके साथ हैं। पीड़ितों को ही पीड़क साबित करने की ईमानदार परम्परा के प्रमाण भरे पड़े हैं।
●मुबारक़ हुसैन सिसगर: सिंह साहब, हिंदुस्तान के कितने मुसलमान फ़तवे को मानते हे जरा इसपे भी गोर कीजियेगा............भारत भूमी की सहिष्णुता जगजाहिर हे और हम भी उसीका एक अंग हे!!
★चप्रस: बिल्कुल। तभी तो अपने दोनों हाथ (पाकिस्तान और पाकिस्तान) कटवाने के बावजूद हिंदुस्तान 'असहिष्णुता' से नवाज़ा जाता है और वह टुकुर-टुकुर भौचक्क देखता-सुनता रहता है; त्याग का प्रतीक भगवा और विश्वजनीनता का प्रतीक हिंदुत्व दोनों साम्प्रदायिकता के प्रयाय बन जाते हैं; आतंक का कोई मजहब नहीं होता पर योग का धर्म हो जाता है। यह सचमुच बहुत बड़ा और उदार रहा है लेकिन अब इसे यह भी लग रहा है कि ऐसा ही रहा तो वह उदारता बरतने के लिये जीवित भी नहीं बचेगा। सोशल मीडिया इसका गवाह है।
●अव: सी पी सिंह जी , मुबारिक जी आप लोग दुसरे ट्रैक पर हैं। आपके लिए शायद मेरे पोस्ट नहीं हैं।
●विकास मिश्र: #गज़ब वज़ाहत साहब जब कोई जवाब नही होता आपके पास तो आप सामने वाले को सीधे या तो भक्त घोषित कर देते हो उसका ट्रैक ही बदल देते हो। #डबल स्टैंडर्ड।
★चप्रस: देखिये साहेब, किसी चीज़ को जानने का क्या तरीका होता है? तथ्य और तर्क। किसी एक के सहारे दूसरे तक पहुँचा जा सकता है, बशर्ते दिमाग खुला हो। मैं तो चाहता हूँ कि मेरी बातें झूठी साबित हों क्योंकि वे अप्रिय हैं। लेकिन इसके लिये तथ्यों से खेलवाड़ तो बौद्धिक बेईमानी है और उससे हक़ीक़त भी नहीं बदलनी। एक ही रास्ता बचता है कड़वे सच का स्वीकार और फिर उसका बिना झिझक वैज्ञानिक उपचार। निष्कर्ष पहले निकाल फिर उसको पुष्ट करने वास्ते डेटा जुटाना तो पुराना वामी खेल है जिसकी प्रैक्टिस हमने 15 सालों तक की थी, फिर एक फ़िल्मकार स्वर्गीय अरुण कौल की कृपा से उस बौद्धिक कैंसर से मुक्ति मिली।
3.12.16 FB
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