तारेक फ़तह, मनव्वर राणा और महमूद मियाँ
तारेक फ़तह, मनव्वर राणा और महमूद मियाँ
तारेक फ़तह कहते हैं कि वे अल्लाह का इस्लाम
मानते, मुल्ला का इस्लाम नहीं।
शायर मनव्वर राणा कौन सा इस्लाम मानते
होंगे?
जो भी हो उन्होंने तारेक फ़तह को सलाह दी कि वे दहशतगर्दी को अपनी विदेश नीति का अंग माननेवाले पाकिस्तान को भी गले लगायें।
अब यह कोई न पूछे कि पाकिस्तान क्यों बना था और पाकिस्तान बनाना सही था तो मुनव्वर राणा पाकिस्तान में क्यों नहीं हैं?
मेरे गाँव के महमूद मियाँ होते तो कहते कि पाकिस्तानी होने के लिए पाकिस्तान जाना ज़रूरी नहीं है; आप अब्दुल कलाम को दूर से और औरंगज़ेब को दिल से सलाम करिये, इतने से काम चल जाएगा।
"महमूद मियाँ , आप तो स्कूल-कॉलेज गए नहीं फ़िर मनव्वर राणा साहेब को कैसे पहचान लिया?"
वे होते तो अपनी नीली-सफ़ेद लुंगी को आधे पेट तक उठाकर बिनावजह टाइट बाँधते हुए ठसक से कहते:
"सोलह कोस पर मोरो गाँव कइसे जाना उल्लू नाँव?"
यही बात कमलेश्वर ने अपने बेहतरीन उपन्यास "कितने पाकिस्तान" में भी कही है।
अब महमूद मियाँ पर कोई शायर या उपन्यासकार का ठप्पा तो था नहीं कि लोग उनको घास डालते। असल में महमूद मियाँ भी उनको आसपास नहीं फटकने देते। बड़े बदतमीज़, मुँहफट और काफ़िर टाइप चीज़ थे वे। औरंगज़ेब के दौर में पैदा हुए होते तो उनके नाम पर आज कोई 'शीशगंज मस्जिद' नुमाया होती। ख़ैर, अच्छा ही हुआ जो यह सब नहीं हुआ नहीं तो बचपन में मुझे 'हिन्दू बकरा' के ग़ोश्त से संतोष करना पड़ता; 'मुसलमान मुर्ग़े' की बिरयानी और कौन खिलाता?
3।10।16
तारेक फ़तह कहते हैं कि वे अल्लाह का इस्लाम
मानते, मुल्ला का इस्लाम नहीं।
शायर मनव्वर राणा कौन सा इस्लाम मानते
होंगे?
जो भी हो उन्होंने तारेक फ़तह को सलाह दी कि वे दहशतगर्दी को अपनी विदेश नीति का अंग माननेवाले पाकिस्तान को भी गले लगायें।
अब यह कोई न पूछे कि पाकिस्तान क्यों बना था और पाकिस्तान बनाना सही था तो मुनव्वर राणा पाकिस्तान में क्यों नहीं हैं?
मेरे गाँव के महमूद मियाँ होते तो कहते कि पाकिस्तानी होने के लिए पाकिस्तान जाना ज़रूरी नहीं है; आप अब्दुल कलाम को दूर से और औरंगज़ेब को दिल से सलाम करिये, इतने से काम चल जाएगा।
"महमूद मियाँ , आप तो स्कूल-कॉलेज गए नहीं फ़िर मनव्वर राणा साहेब को कैसे पहचान लिया?"
वे होते तो अपनी नीली-सफ़ेद लुंगी को आधे पेट तक उठाकर बिनावजह टाइट बाँधते हुए ठसक से कहते:
"सोलह कोस पर मोरो गाँव कइसे जाना उल्लू नाँव?"
यही बात कमलेश्वर ने अपने बेहतरीन उपन्यास "कितने पाकिस्तान" में भी कही है।
अब महमूद मियाँ पर कोई शायर या उपन्यासकार का ठप्पा तो था नहीं कि लोग उनको घास डालते। असल में महमूद मियाँ भी उनको आसपास नहीं फटकने देते। बड़े बदतमीज़, मुँहफट और काफ़िर टाइप चीज़ थे वे। औरंगज़ेब के दौर में पैदा हुए होते तो उनके नाम पर आज कोई 'शीशगंज मस्जिद' नुमाया होती। ख़ैर, अच्छा ही हुआ जो यह सब नहीं हुआ नहीं तो बचपन में मुझे 'हिन्दू बकरा' के ग़ोश्त से संतोष करना पड़ता; 'मुसलमान मुर्ग़े' की बिरयानी और कौन खिलाता?
3।10।16
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