Tuesday, December 20, 2016

दलित चिंतक सचमुच 'पददलित' हैं

दलित चिंतक सचमुच 'पददलित' हैं।
वे पददलित नहीं होते तो
मीमों द्वारा केरल में एक दलित की बलात्कार के बाद हत्या पर चुप नहीं रहते;
बांग्लादेश-पाकिस्तान में दलितों के जातिनाश पर उनके मुँह में दही नहीं जम जाता; और
बंगाल में सैकड़ों दलितों की बेहूरमति ,हत्या, लूटपाट पर वे मौनीबाबा बनने को मजबूर नहीं होते।
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तो असली सवाल यह है कि दलित चिंतकों को किसने पददलित किया है?
कहते हैं कि ये दलित चिंतक वहाबी शान्तिदूत दिनार और सभ्यता के ठेकेदार डॉलर की लीला के शिकार हो गए हैं!
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देखिये, दलितापा का व्याकरण कुछ ऐसा लगता है:
पहले खुद को दलित-वंचित घोषित करो,
फिर उसके लिए सुदूर अतीत के किसी असली या कल्पित व्यक्ति या नियम को दोषी साबित करो,
उसके बाद अपनी सारी वर्तमान नाकामियों के लिए उस व्यक्ति-नियम को कोसने का धंधा शुरू करो,
इस धंधे को चलाये रखने के लिए 'डॉलर' और 'दिनार' के यहाँ अर्ज़ी पर अर्ज़ी देना शुरू करो,
और अंततः जब डॉलर अपनी 'सभ्यता'तथा दिनार अपनी 'शांति' के खेल खेलने लगें तो नमकहलाली करते हुए साइलेंट मोड में चले जाओ।
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इसके अलावा जो कुछ है बताते चलो भाई, नहीं तो पहले से पददलित बेचारे दलित चिंतक कहीं रियाल, यूरो, टका, पाउंड के प्रेम की गिरफ़्त में न आ जाएँ!
'पद' और 'दलन' से दलित चिंतकों का राग कुछ ऐसा ही है जैसे राधा-माधव का:
"राधा माधव भेंट भई।
राधा माधव माधव राधा कीट भृंग गति ह्वै जो गई।।"
(राधा की माधव से भेंट हुई तो दोनों एक-दूसरे में ऐसे लीन हो गए जैसे कली और भ्रमर। राधा माधव हो गईं और माधव हो गए राधा यानी अभिन्न।)
20.12

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