समान नागरिक संहिता: क्या गृहयुद्ध अवश्यम्भावी है?
समान नागरिक संहिता: क्या गृहयुद्ध अवश्यम्भावी है?
■ जो लोग शरीया-हदीसों के आधार पर मुल्क और संविधान चाहते थे उन्होंने Direct Action करके पाकिस्तान बना लिया। बाकी पर तो भारत का संविधान ही चलेगा जो समान नागरिक संहिता को आदर्श मानता है और जिसके अनुसार अबतक 65 वर्षों में इसे लागू हो जाना चाहिए था।
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इसलिए समान नागरिक संहिता पर एनडीए सरकार का हरकत में आना पोलिटिकल स्टंट नहीं बल्कि एक ऐसी जिम्मेदारी है जिससे पहले की सरकारें वोटबैंक के लिये भागती रहीं हैं।
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आरक्षण जब लागू हुआ तो भी ख़ून ख़राबा हुआ था। समान नागरिक संहिता के लिए भी होगा क्योंकि देश में न जाने "कितने पाकिस्तान" पल रहे हैं। 1850 के दशक में अमेरिका में भी गृहयुद्ध हुआ था जब अश्वेतों को बराबरी के अधिकार दिए गए थे।
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हालाँकि भारत में मुस्लिम नेतृत्व को डर ही बराबरी से लगता है, उसे गैरबराबरी वाले विशेष अधिकार चाहिए। अभी तो सेकुलर पार्टियाँ मुसलमानों के कन्धों का इस्तेमाल कर रहीं हैं लेकिन बाद में जनाधार खिसकता देख उनको बलि का बकरा ही बनाएंगीं। सबसे ज्यादा दंगे अबतक 'सेकुलर राज' में ही हुए हैं।
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मजे की बात यह है कि समान नागरिक संहिता की वर्तमान बहस तब शुरू हुई है जब सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के प्रिअम्बल के आलोक में सरकार से हलफ़नामा माँग लिया है। जहाँ तक मेरी समझ है शायरा बानो के पेटिशन के बाद।सरकार ने भी चालाकी से इसे विधि आयोग को पकड़ा दिया है।
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भारत की राजनैतिक पार्टियाँ 19 वीं सदी के अमेरिकी पार्टियों जैसी नागरिक्तबोध संपन्न नहीं हैं। ये तो तनाव की खाद से वोट की फ़सल काटेंगी।
असल बात है कि जनता में अभूतपूर्व जागरुकता है और लोग खूब समझ रहे हैं कि फिरकावाराना हरकतें कौन , कब और क्यों कर रहा है।
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जिस प्रकार नए के सृजन के लिये पुराने का ध्वंस जरूरी है वैसे ही भारत में आनेवाले तनाव और गृहयुद्ध सरीखे संघर्ष के गर्भ से बेहतर समाज निकलेगा, कुंदन की तरह।भारत जग गया है। भारत बदल रहा है। अब राजनीति भी निस्संदेह बदलेगी। मोदी उसकी वजह नहीं हो सकते, उसकी वजह से पैदा जरूर हुए हैं और इस वजह को पीठ दिखाने पर उन्हें जाना भी पड़ेगा।
16.10.16
■ जो लोग शरीया-हदीसों के आधार पर मुल्क और संविधान चाहते थे उन्होंने Direct Action करके पाकिस्तान बना लिया। बाकी पर तो भारत का संविधान ही चलेगा जो समान नागरिक संहिता को आदर्श मानता है और जिसके अनुसार अबतक 65 वर्षों में इसे लागू हो जाना चाहिए था।
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इसलिए समान नागरिक संहिता पर एनडीए सरकार का हरकत में आना पोलिटिकल स्टंट नहीं बल्कि एक ऐसी जिम्मेदारी है जिससे पहले की सरकारें वोटबैंक के लिये भागती रहीं हैं।
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आरक्षण जब लागू हुआ तो भी ख़ून ख़राबा हुआ था। समान नागरिक संहिता के लिए भी होगा क्योंकि देश में न जाने "कितने पाकिस्तान" पल रहे हैं। 1850 के दशक में अमेरिका में भी गृहयुद्ध हुआ था जब अश्वेतों को बराबरी के अधिकार दिए गए थे।
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हालाँकि भारत में मुस्लिम नेतृत्व को डर ही बराबरी से लगता है, उसे गैरबराबरी वाले विशेष अधिकार चाहिए। अभी तो सेकुलर पार्टियाँ मुसलमानों के कन्धों का इस्तेमाल कर रहीं हैं लेकिन बाद में जनाधार खिसकता देख उनको बलि का बकरा ही बनाएंगीं। सबसे ज्यादा दंगे अबतक 'सेकुलर राज' में ही हुए हैं।
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मजे की बात यह है कि समान नागरिक संहिता की वर्तमान बहस तब शुरू हुई है जब सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के प्रिअम्बल के आलोक में सरकार से हलफ़नामा माँग लिया है। जहाँ तक मेरी समझ है शायरा बानो के पेटिशन के बाद।सरकार ने भी चालाकी से इसे विधि आयोग को पकड़ा दिया है।
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भारत की राजनैतिक पार्टियाँ 19 वीं सदी के अमेरिकी पार्टियों जैसी नागरिक्तबोध संपन्न नहीं हैं। ये तो तनाव की खाद से वोट की फ़सल काटेंगी।
असल बात है कि जनता में अभूतपूर्व जागरुकता है और लोग खूब समझ रहे हैं कि फिरकावाराना हरकतें कौन , कब और क्यों कर रहा है।
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जिस प्रकार नए के सृजन के लिये पुराने का ध्वंस जरूरी है वैसे ही भारत में आनेवाले तनाव और गृहयुद्ध सरीखे संघर्ष के गर्भ से बेहतर समाज निकलेगा, कुंदन की तरह।भारत जग गया है। भारत बदल रहा है। अब राजनीति भी निस्संदेह बदलेगी। मोदी उसकी वजह नहीं हो सकते, उसकी वजह से पैदा जरूर हुए हैं और इस वजह को पीठ दिखाने पर उन्हें जाना भी पड़ेगा।
16.10.16
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