Sunday, December 25, 2016

दलित चिंतकों के आदर्श कबीर-रविदास नहीं, जोगेन्दर मंडल हैं!

दलित चिंतकों के आदर्श कबीर-रविदास नहीं, जोगेन्दर मंडल हैं!

तथ्यों और सत्य के मामले में दलित चिंतकों की स्थिति वाक़ई चिंतनीय हैं क्योंकि वे अपने निजी स्वार्थों और मानसिक गुलामी के पांव तले दबे हुये दलित हैं! इसलिये वे दलितापे के चिंतक ह, दलित-हित चिंतक नहीं हैं। चिंतक तो मुक्त होता है: थोपी हुई दृष्टि से, टुच्चे स्वार्थों से; वह दलित हो ही नहीं सकता। तभी तो कबीर और रैदास चिंतक थे, संत थे, कवि थे, महान समाज सुधारक थे लेकिन दलित नहीं थे।

कितने दलित चिंतक खुलकर कबीर और रैदास को अपने आदर्श मानते हैं? इस लिहाज से दलित चिंतकों की नमक हलाली क़ाबिले तारीफ़ है, जिसका खाते हैं उसका बजाते हैं।

बंगाल के धुलागढ़ में दलितों पर शांतिदूतों ने अत्याचार किये, दलित चिंतक चुप रहे और चुप हैं। केरल में एक दलित की बलात्कार के बाद शांतिदूतों ने हत्या कर दी, दलित चिंतक फिर भी वहाबी और वेटिकन के नमक के फर्ज़ से नहीं डिगे।

उनके आदर्श हैं जोगेन्दर मंडल जिह्नोंने अँगरेज़ आकाओं की सलाह पर अपने राजनीतिक कैरियर के लिए जिन्ना से हाथ मिलाकर  पश्चिम पंजाब (पाकिस्तान) और पूर्वी बंगाल (पहले पाकिस्तान और अब बांग्लादेश ) के करोड़ों दलितों की ज़िंदगी और इज़्ज़त ही दाँव पे लगा दी।

 पाकिस्तान और बांग्लादेश में रह गए ज्यादातर हिन्दू दलित थे और उनकी आबादी पाकिस्तान में लगभग एक चौथाई से 2% और बांग्लादेश में लगभग 30 % से 8 पर आ गई है। उन्हें इस्लामी अबे जमजम से पवित्र कर दिया गया ताकि उनके पड़ोसी ग़ाज़ी होकर 72-हूरों वाली ज़न्नत के रसीदी टिकट ले सकें जहाँ दारू का दरिया है और इच्छा हो तो गिलमे यानी कमसिन लौण्डे भी।

कभी किसी दलित चिंतक को इस पर अपनी जुबान खोलते देखा-सुना? नहीं न! इसे कहते हैं नमक हलाली।
23।12।16

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